पहला हस्ताक्षर...

कुछ-कुछ पहले जैसा...

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

वो जो अधूरी सी...



जैसे देर शाम तक मुझसे लिपटा तुम्हारी यादों का धुआं रात गए बर्फ बनकर बरस गया हो. कल शाम तक चीड़ और देवदार के इन घने जंगलों में तीखी हवाओं की सिहरन थी...सूरज ने वक़्त पर विदा ले ली, चाँद हमेशा की तरह कहीं अटका था...और मैं खुले आसमान के नीचे ठिठुरता, तारों को ताकता, सोच रहा था कि इस वक़्त तुम कहाँ होगी, क्या कर रही होगी...किसका आँगन तुम्हारे नूर से रोशन होगा...दिल की आवाज़ को चॉकलेट दिलाने का लालच देकर चुप करा देता हूँ, कि वो कोई इत्तेफाक नहीं रखता दुनिया की कडवी सच्चाइयों से. दिल कह रहा है, उसे मयस्सर कर भी आओ...वो जो दबी सी आंच बाकी है।

आंच तो बस यादों में है जिनसे यह दरमियानी बर्फ नहीं पिघलती. तुम्हारे मेरे दरमियाँ इस बर्फ के सिवा क्या है...!

आमतौर पर इन दिनों यहाँ बर्फ नहीं पड़ती...पड़ती भी है तो इतनी नहीं. सुबह उठा तो देखता हूँ बुलेट शफ्फाक बर्फ से ढंकी हुई है। करीब तीन इंच मोटी परत...यह गाँव है स्याबा... उत्तरकाशी से हरसिल की तरफ जाते हुए करीब 14 किलोमीटर सड़क के रस्ते और फिर एक मोड़ से बाएं मुड़कर करीब 4 किलोमीटर अन्दर, घने जंगलों में। शहर की अमरबेल सी फैलती ख्वाहिशों से दूर। स्याबा फुर्सत है, ख़ामोशी है, और तुम्हारी बातों, तुम्हारी यादों में ब्लेंडेड एक अकेलापन...एक दुरुस्त नशा है। इन दिनों अपने एक पुराने दोस्त का मेहमान हूँ। यूँ उसने कहा तो था अकेले ही आने को लेकिन अब वो रश्क भरी ताज्जुब में है कि तुम्हें भी साथ ले आया हूँ। वो हैरत से पूछता है, इतने सालों बाद भी?...साल? वक़्त कहाँ ठहरा है, याद नहीं...

अगर आप कहीं ढूंढ़ पायें इस गाँव को अपने चराग-ए-गूगल से तो बिना किसी तैयारी के आइयेगा. ठीक वैसे ही जैसे इस दुनिया में आये थे. अगर गाँव के किसी घर में गरीबी ने एक रोटी भी बचाई होगी तो उस परिवार से पहले उस पर आपका हक होगा. यह मेहमान'नवाजी उनके खून में है, उनके अदब का हिस्सा नहीं. वो जानते हैं कि ज़िन्दगी बेहद संघर्ष भरी है. कभी मैदान से निकला कोई रुसवा बादल फटता है तो समंदर बनकर बरसता है...तो कभी बिन मांगी दुआओं सी बरसती रहती है बरफ, कई-कई दिनों तक. ऐसे में ज़िन्दगी है तो बस आज, इसी मौके. जो खा लिया, वो अपना. जितनी देख ली उतनी ही दुनिया. दो टुकड़ों में सही मगर यह उनकी बज़्म-ए-शाही है...

नज़रों का बयान यह है कि आँखें जहाँ तक देख पाती हैं बस बियाबान है. मगर इन देवदारों से पुराना ताल्लुक लगता है. पेट भरा हो और पास रखी हो एक वक़्त की शराब तो दिल को बेफिक्री घेर लेती है. ऐसे में देवदार के किसी पेड़ के नीचे उसकी जड़ों से हाल चाल पूछता बैठ जाता हूँ. वो बताती हैं कि पेड़ होना कितने धैर्य का काम होता है. उसे याद नहीं कि उसने आखिरी बार किसी से कोई शिकायत कब की थी कि इस मौसम पानी नहीं बरसा... वो कहती हैं है कि उनके देखते-देखते इंसान कितना आगे निकल गया कि अब उसके पास खुद के लिए भी वक़्त नहीं...लेकिन आखिरी दिनों में उसे ज़रूरत पड़ती है इन सूखी लकड़ियों की. काश इस पेड़ के बयान से दुनिया की तमाम हसरतों के राज़ बेपर्दा कर पाता...वहीँ बैठा अचानक चौंक जाता हूँ कि तुमने बिना कहे पीठ पर हाथ रख दिया है. रात गहरी हो रही थी...

उसके बाद देर तक एक-दूसरे में डूबे रहे दोनों ने इंतज़ार नहीं किया चाँद का...चाँद भी कब आया और गया पता नहीं...बिन दीवारों के उस मकान में कोई खिड़की भी कहाँ थी, जिसमें कैद थी उन दोनों की रूहें...

...उसे मुसलसल कर भी आओ, वो जो अधूरी सी राह बाकी है, वो जो रुकी सी चाह बाकी है...

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तमाम बातों में एक बात यह भी है कि वक़्त का एक हिस्सा बीत जाने के बाद ज़रूरी हो जाता है, तुम्हारी याद की केंचुल उतारना...ऐसे में मुझे याद आता है कि अगर ब्लॉग नाम की ये शै नहीं होती तो मैं किस दोस्त का कंधा ढूंढ़ता...फिर कई दिनों तक ज़रूरत नहीं होती तुम्हारे साथ बिताये गुज़श्ता लम्हों की बारिश में नहाने की...कि ये ब्लॉग कोई जादुई शै है...किसी दीवाने आशिक का सिरफिरा प्रयोग।

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Image courtsey- Satyabrata Singha, a bright member of our beloved WED group.
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परछाईयां

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