पहला हस्ताक्षर...

कुछ-कुछ पहले जैसा...

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

                       प्रेम का शोकगीत



दिल्ली शहर में फरवरी की आधी रात मेरे घर की आधी रात से अलग है। अंतहीन शोर की जगह छत्तीसगढ़ के इन जंगलों में सन्नाटा है, झींगुरों की आवाजें हैं, और हवा में जाती ठंड की खुश्की है। ऐसे में नींद मेरी आंखों से दूर क्यों है...मेरी ही आंखों में नींद की जगह दुनिया के शोक ने क्यों जगह ले ली है। बिस्तर पर करवटें बदलते मैं सोच रहा हूं उस मां के बारे में जिसकी बेटी की शादी पक्की हो गयी है..और जिस आवाज में गई शाम तक खुशी की चमक सुनाई देती थी उसका गीलापन मुझे शोक से भर जाता है। रात वो खाने की कोशिश करती है लेकिन रोटी एक निवाला भी गले से नहीं उतरता...

क्या मेरी ही तरह उस मां की आंखों से भी नींद ने आज रात की छुट्टी ले ली होगी...या फिर ना जाने कितनी ही रातों की। घर भर में फिरकी की तरह घूमती अपनी बेटी को आज वो नजर भरकर देख रही होगी, जिस नजर से उसने आजतक कभी नहीं देखा। शायद उसने अपनी बेटी से कहा होगा कि तू मेरे साथ ही सो जाना आज। उनींदी आधी रात को उसके बालों में हाथ फेरती हुई बचपन से आज दिन तक की तस्वीरें शो-रील की तरह उसकी आखों से गुजरती होंगी। बेटी के अपने घुटनों पर चलने से लेकर एक दिन अपने पैरों पर खड़े हो जाने तक कितनी ही बातें है जिनमें कैद उसकी जिंदगी अपने बेटी के चले जाने का शोक मना रही होगी। एक ऐसा भी तो क्षण होता होगा जब उसे दुनिया के इन रीति-रिवाजों पर बेतरह घृणा होती होगी। शिव कुमार बटालवी के एक विरह गीत में बेटी अपनी मां से कहती है...मां, ये प्रेम भी उस तितली की तरह है जिसे कांटों पर बैठना ही सुहाता है।

और सोने का नाटक कर रही बेटी की आंखों से आंसू बह रहे होंगे जिसे मां देख नहीं सकती...चुपचाप बहते आंसुओं में बिछुड़ने की हुड़क तो है लेकिन रोने का शोर नहीं...मेरा प्रेमगीत भी तुमसे बिछुड़ जाने का शोक मनाता है मां। कितना मुश्किल होता होगा मां-बाप का घर छोड़ अपने प्रिय के घर की राह चुन लेना। एक सूना करके दूसरे को खुशबुओं से भर देना...कितना कुछ होता है जो उसे भूल जाना होगा...कितना कुछ होता है जिसे वो कभी नहीं भूल पाएगी। एक जोड़ी आंखें हैं, एक घर है, एक मोहल्ला, एक शहर और उन सबमें एक सा सूनापन…प्रेमगीत से बहते आंसुओं का नमक गालों से होता हुआ होंठों तक पहुंचता है। मैं सोच रहा हूं आंसुओं का ये खारापन हमारे प्रेम की खाद होता है। 

फिर उसके बिछुड़ने के शोक को आधी रात मैं जोगी ऊधो के इस ब्रम्हज्ञान में दबाने की कोशिश करता हूं कि बिछुड़ जाना ही तो आखिरी सत्य है हमारा। कुछ देर के मिलने और फिर मिलने के लिए बिछुड़ जाने के क्रम में आखिरकार एक दिन हमें दुनिया के इस रोज़नामचे से विदा ले लेनी होगी...और वहां दूसरी दुनिया में हम यहां से कुछ भी नहीं ले जा सकेंगे। खुशबुओं से भरी अपनी यादें भी नहीं...


Image courtesy: Padmakar Kappagantula, Indian Art gallery

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

Aajiya


                        धीमी आंच पर पकता है जिंदगी का गीत

तीन साल पहले की आखिरी पोस्ट। ताजा दो हजार सोलह के चार महीने बीत जाने के बाद...और इस बीच उम्र की पगडंडियों से गुजरते कितने ही रास्तों की जांच में सालों का वक्त ज़ाया कर लिया। ये पता करने को, कि वो कहीं नहीं पहुंचते। समय की नदी से होकर न जाने कितना पानी बह गया। पलट कर देखता हूं तो लगता है, अब भी वहीं कहीं हूं। पहुंचने की खूब कोशिश करता हूं लेकिन पहुंचता कहीं नहीं। हसरतों का सुलगता हवन कुंड है जिंदगी और उसमें सांसों की आहुति डालते हम दिन रात कुछ हो जाने की कोशिश ही तो करते हैं, ढेर सारी ईमानदारी और थोड़ी सी बेईमानी से।
कल तुम्हें इंटरनेट पर ढूंढ़ रहा था, अचानक जानने की इच्छा जागी कि देखूं, तुम सांप सीढ़ी के इस खेल में अब कहां हो। देखकर खुशी हई...वीपी एंड ऑल दैट हां?
पाने और खोने के हिसाब में कभी अपना बजट सरप्लस हुआ हो, ऐसा जिंदगी का कोई साल नहीं आया अब तक। लेकिन जब कोई अपना बिना बताए चला जाए तो लगता है मानो कुछ ऐसा चला गया हो जिसकी कमी अब अपूरणीय है। तुम्हें सोचते हुए अचानक कभी धरती डोलने लगती है, आसमान तेजी से घूमने लगता है। क्रोधमिश्रित दुख की एक तीव्र पीड़ा होती है। मन का आकाश खाली हो जाता है और उसमें उभरती है तुम्हारी छवि। जिसे हम देख भर सकते हैं, छूकर महसूस नहीं कर सकते। चूम नहीं सकते। प्यार नहीं कर सकते। खूब जोर से अपनी बांहों में भरकर खुद से चिपका नहीं सकते।

आजी का चले जाना, जो इस बीच हुआ, कुछ ऐसा ही था।

यूं हममें से कोई बताकर कहां जाता है कभी लेकिन तुमने तो कोई इशारा भी नहीं किया। आहट भी नहीं होने दी कि तुम्हारे जाने का वक्त आता है अब। लेकिन मानो तुम्हारे बुलावे पर वक्त आया और तुमने धर दी अपनी चदरिया। जस की तस। हां, जस की तस...
आजी ऐसी ही थीं। होकर भी नहीं, और ना होकर भी हर जगह। मेरी फोनबुक पर सबसे ऊपर तुम्हारा नाम है, ट्रिपल ए के साथ आजिया...बीते दस सालों में बमुश्किल बीस बार तुमसे फोन पर बात हुई होगी मेरी, है ना? लेकिन फिर भी तुम ऐब्सेंट नहीं थी, और ना कभी ऐसा हो जाने का भाव आया था मेरे मन में। ऐसा लगता था कि तुम हो, और हमेशा रहोगी। अगली ही फुरसत में तुम्हारे साथ रह लूंगा...वक्त बिता लूंगा। वो फुरसत आई तो तुम्हारे इस दुनिया से चले जाने के बाद। फागुन की बारिश सी बेमानी फुरसत। क्या करूं इसका अब?
याद करने के क्रम में बचपन के सालों के सीले पन्ने पलटता हूं तो याद आता है घर में हर बड़े से पिटने वाले इस बच्चे की जिंदगी में अकेली तुम थी जो उसकी आंखों में कभी आंसू नहीं देख सकती थी। उसकी एक मुस्कुराहट के लिए अगर तुम्हारे बस में होता तो एक नयी दुनिया बना सकती थी, और उसे मिटा भी। तुम्हारे सामने किसी की हिम्मत नहीं हुई कि उस बच्चे को कोई छू भी सके। इस बच्चे ने बहुत बाद में अंग्रेजी उपन्यासों में अनकंडीशनल लव यानी बिना किसी शर्त या बदले की इच्छा के प्रेम का फ्रेज़ पढ़ा। जब पीछे मुड़कर इस उसने याद करने की कोशिश की, कि आखिर अपनी जिंदगी में किस एक शख्स की उपस्थिति को वो इस फ्रेज़ से जोड़े, तो जो तस्वीर उभरी, वो तुम्हारी थी। ये उस पर सालों से तुम्हारे प्यार की ही शक्ल में बरस रहा था। तुमने प्यार बस दिया, देती गयी...तब तक देती रही जब तक तुम्हारा जिस्म ठंडा और बेजान नहीं हो गया। बिना किसी अपेक्षा के...चाहा तो सिर्फ इतना कि उस बच्चे की आंखों में कभी आंसू न आए। उसके होठों की मुस्कान खिली रहे चमकीले फूल सी।
आजी, तुम्हारा पार्थिव शरीर मेरे जीवन में शव का पहला स्पर्श है। मैं अपनी उंगलियों की पोरों में आज भी वो बेजान ठंडक महसूस कर सकता हूं। मेरी छुअन की गर्माहट लाख कोशिशों के बाद भी तुममें कोई हरकत जगा पाने में नाकाम थी। उस सख्त सी ढीली पड़ी देह में कहीं कोई जुंबिश नहीं थी। मैं तुम्हारी पथराई आंखों के अपनी तरफ मुड़ने का इंतजार करते हुए तुम्हारी हथेलियों में अपने हाथों की गर्माहट मल रहा था...ये जानते हुए भी कि कई घंटों पहले तुम इस बात की उम्मीद मन में लिए चली गयी कि आखिरी बार हम सबको देख सको। लेकिन ये इच्छा पूरी नहीं हुई तुम्हारी।
तेरह दिनों तक मैं तुम्हारे पास सिर्फ इसलिए रुका रहा कि जान सकूं इंसानी मजबूरी की वजहों को। कि कैसे पीढ़ियां रोटी के लिए पलायन करती हैं। जाने क्या पा लेने और हो जाने की कोशिश में हम उनके लिए वक्त नहीं निकाल पाते जिनसे हमारा वजूद है। जिनके होने से हमारी पहचान है। तुम्हारे बारे में, तुम्हारी अच्छाईयों और अकूत संघर्ष कर पाने की क्षमता के बारे में लिखूं तो जाने ऐसे कितने ब्लॉग भर जाएंगे लेकिन उस क्षमता को शब्दों में ढालने का न्याय न हो सकेगा।
इस चिट्ठी भर को मेरी श्रद्धांजली मानना आजी। तुम जहां कहीं हो, जिस भी दुनिया में...वहां तुम खुश रहना। और यहां मेरी ताकत बनी रहना हमेशा। तुम हमेशा खुश रहोगी चाहे जहां रहो भी, क्योंकि तुममें अद्भुत ताकत थी कर्म की। यहां मैं कोशिश करूंगा कि हम सब जैसे भी हैं, उससे बेहतर इंसान बन सकें। बनने की कोशिश कर सकें...पहचान सकें, साहस, कर्तव्य, संघर्ष जैसे शब्दों की गरिमा...सीख सकें, बिना शर्त के देना...प्यार !! कि तुम्हारी तरह एक शानदार मृत्यु का आलिंगन करने से पहले हमें मुक्त कंठ से गाना सीखना है, गीत जिंदगी का...

रविवार, 20 जनवरी 2013

सैनिटरी पैड और हम





माम लोगों ने अपने हिस्से की रोशनी का इंतजार किया और इंतजार के उस पार अपनी जिंदगी की लौ बुझा दी...ये जानकर कि ऐसा हमेशा नहीं होता कि सबके हिस्से में सूरज आए। लेकिन तुमने साबित किया अपना लोहा और ये भी कि तुम उनमें से नहीं थे। तुमने अपने होने की वजहों के हजारों-लाखों चिराग बनाए और दिन-रात की अथक मेहनत से नया सूरज उगाया। अब सूरज तुम्हारे इशारे पर उगता है...देखता हूं कि कैसे लोग चरागों की शक्ल में तुमसे लिपटते जाते हैं और तुम उनका स्याह लेकर रोशनी की उम्मीद बांटते हो....बिना रुके, बिना थके।

कपड़ों के कितने मतलब होते हैं...किसी के लिए साज-सिंगार तो किसी के लिए अस्मत ढंकने का जरिया...कोई दिन में चार बदले तो किसी के पास चार दिनों के लिए एक। कपड़े वो सब छुपा लेते हैं जिन्हें हम दुनिया के सामने नहीं लाना चाहते, लेकिन यही कपड़े वो सच नहीं छुपा सके जिससे रुबरू होते ही आपकी रूह कांप उठेगी। मुमकिन है थोड़ी देर को नजरें बर्फ हो जाएं, और अंदर कुछ ठहर जाए। मैं सहम गया हूं। देश की हजारों औरतों को बच्चेदानी यानी यूटेरस का कैंसर होता है, या इन्फेक्शन की वजह से इस दुनिया का सृजन करने वाला वो अंग काटकर निकाल दिया जाता है क्योंकि उन हजारों लाखों औरतों के पास मेन्सट्रुएश्नल साइकल बिताने के लिए गज भर का साफ कपड़ा नहीं होता। सैनिटरी पैड की बात कौन करे। साथ ही ये आंकड़ा भी कि वूमन एम्पावरमेंट की बहसों के लिए सरकारों ने सैकड़ों करोड़ फूंक दिए। वूमन एम्पावरमेंट? ? ?

ऐसे में हर महीने के उन तकलीफदेह दिनों को बिताने के लिए देश के मुख्तसर इलाकों में बेइंतहां गरीब तबके की औरतें किन-किन चीजों का इस्तेमाल करती हैं...जरा दिल थामकर सुनिए...पॉलीथीन, अखबार या रद्दी के कागजों की चिंदियां, जूट की बोरी के टुकड़े, नारियल का बूज, गंदे कपड़ों पर राख यानी ऐश, पहले से इस्तेमाल किए जा चुके(कूड़े के ढेर पर फेंके) सैनिटरी पैड्स, पूराने-बेकार हो चुके कपड़े या फिर कुछ नहीं। ये औरतें सेप्टिक हो चुके इस कपड़े को धूप भी नहीं दिखा पातीं, वजह शायद बतानी जरूरी नहीं। नतीजा, यूटरस में होने वाला लाइलाज इन्फेक्शन। कपड़ा, ये एक शब्द कितना बड़ा लगता है।
ऐसे में तुमने उम्मीदों का नया उफक खोला...दुनिया से कहा कि वो कपड़ा जो तुम्हारे लिए बेमतलब हो चुका है उसे दान कर दो। रिसाइक्लिंग की, रेनोवेट किया और मुफ्त की सैनिटरी पैड बनाई, उन लोगों के लिए जहां वूमनहुड एक अभिशाप से ज्यादा कुछ नहीं। धीरे-धीरे इसे एक उद्यम में बदला। सोशल आंत्रेप्रेन्योरशिप के एक उम्दा मॉडल में। गरीब को सम्मान मिला, बदलाव की किरण दिखी और दे सकने वालों को एक वजह। एक कारण। सार्थकता का बहुमूल्य भाव। संतोष।

गूंज, जो संस्था तुम चलाते हो वो आज हर साल एक हजार टन से ज्यादा पुराने कपड़ों को इकट्ठा करती है, रीसाइकल करती है और गरीब तबके की उन औरतों के लिए सैनिटरी पैड रीप्रड्यूस करती है जो उन्हें नई जिंदगी दे रहा है। हिंदुस्तान के 21 राज्यों में गूंज की गूंज सुनाई देती है...छोटे-मोटे करीब 200 गैरसरकारी संस्थाओं, इतने ही बिजनेस हाउस, 100 स्कूल और 500 से ज्यादा स्वयंसेवी क्लॉथ फॉर वर्क की इस अनूठी योजना को अमली जामा पहना रहे हैं...वो भी कुल जमा 97 पैसे प्रतिकिलोग्राम के खर्च पर।

इस शख्स का नाम अंशु गुप्ता है। अंशु की उम्र ज्यादा नहीं लेकिन हौसले आसमान छूते हैं। मैंने अंशु को कहीं बोलते सुना...पांच मिनट में जो सुना और फिर पढ़ा, ये पोस्ट उसी का सार है। पहले अंशु ने कहा कि वो सैनिटरी पैड पर काम करते हैं। पहले मैं भी अचकचाया था, आप ही की तरह। लेकिन उन पांच मिनटों में बहुत कुछ बदला। अब ये शब्द बोलने में संकोच का भाव नहीं आता। अगर आपको आता हो तो गूंज के बारे में डब्लूडब्लूडब्लू डॉट गूंज डॉट कॉम पर जाकर पढ़ें। और ये भी कैसे उनके बीस लाख से ज्यादा सैनिटरी पैड्स ने हजारों लाखों औरतों की जिंदगियां बदली हैं।

ये लिखते हुए बालकनी से सूरज को डूबते देखता हूं और अचानक फिर से सोचता हूं, जीने की वजह के बारे में। अब वो हर जगह दिखाई देती है। चमकती सी। रोशनी की गूंज सी...तुम भी आसपास ही हो कहीं और खुश भी। कितना कुछ तो है...कितना-कुछ, खत्म होने के बाद भी।

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to know more about him, google Asnhu gupta.

Image courtesy-  .ecell-nitt.org

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

वो जो अधूरी सी...



जैसे देर शाम तक मुझसे लिपटा तुम्हारी यादों का धुआं रात गए बर्फ बनकर बरस गया हो. कल शाम तक चीड़ और देवदार के इन घने जंगलों में तीखी हवाओं की सिहरन थी...सूरज ने वक़्त पर विदा ले ली, चाँद हमेशा की तरह कहीं अटका था...और मैं खुले आसमान के नीचे ठिठुरता, तारों को ताकता, सोच रहा था कि इस वक़्त तुम कहाँ होगी, क्या कर रही होगी...किसका आँगन तुम्हारे नूर से रोशन होगा...दिल की आवाज़ को चॉकलेट दिलाने का लालच देकर चुप करा देता हूँ, कि वो कोई इत्तेफाक नहीं रखता दुनिया की कडवी सच्चाइयों से. दिल कह रहा है, उसे मयस्सर कर भी आओ...वो जो दबी सी आंच बाकी है।

आंच तो बस यादों में है जिनसे यह दरमियानी बर्फ नहीं पिघलती. तुम्हारे मेरे दरमियाँ इस बर्फ के सिवा क्या है...!

आमतौर पर इन दिनों यहाँ बर्फ नहीं पड़ती...पड़ती भी है तो इतनी नहीं. सुबह उठा तो देखता हूँ बुलेट शफ्फाक बर्फ से ढंकी हुई है। करीब तीन इंच मोटी परत...यह गाँव है स्याबा... उत्तरकाशी से हरसिल की तरफ जाते हुए करीब 14 किलोमीटर सड़क के रस्ते और फिर एक मोड़ से बाएं मुड़कर करीब 4 किलोमीटर अन्दर, घने जंगलों में। शहर की अमरबेल सी फैलती ख्वाहिशों से दूर। स्याबा फुर्सत है, ख़ामोशी है, और तुम्हारी बातों, तुम्हारी यादों में ब्लेंडेड एक अकेलापन...एक दुरुस्त नशा है। इन दिनों अपने एक पुराने दोस्त का मेहमान हूँ। यूँ उसने कहा तो था अकेले ही आने को लेकिन अब वो रश्क भरी ताज्जुब में है कि तुम्हें भी साथ ले आया हूँ। वो हैरत से पूछता है, इतने सालों बाद भी?...साल? वक़्त कहाँ ठहरा है, याद नहीं...

अगर आप कहीं ढूंढ़ पायें इस गाँव को अपने चराग-ए-गूगल से तो बिना किसी तैयारी के आइयेगा. ठीक वैसे ही जैसे इस दुनिया में आये थे. अगर गाँव के किसी घर में गरीबी ने एक रोटी भी बचाई होगी तो उस परिवार से पहले उस पर आपका हक होगा. यह मेहमान'नवाजी उनके खून में है, उनके अदब का हिस्सा नहीं. वो जानते हैं कि ज़िन्दगी बेहद संघर्ष भरी है. कभी मैदान से निकला कोई रुसवा बादल फटता है तो समंदर बनकर बरसता है...तो कभी बिन मांगी दुआओं सी बरसती रहती है बरफ, कई-कई दिनों तक. ऐसे में ज़िन्दगी है तो बस आज, इसी मौके. जो खा लिया, वो अपना. जितनी देख ली उतनी ही दुनिया. दो टुकड़ों में सही मगर यह उनकी बज़्म-ए-शाही है...

नज़रों का बयान यह है कि आँखें जहाँ तक देख पाती हैं बस बियाबान है. मगर इन देवदारों से पुराना ताल्लुक लगता है. पेट भरा हो और पास रखी हो एक वक़्त की शराब तो दिल को बेफिक्री घेर लेती है. ऐसे में देवदार के किसी पेड़ के नीचे उसकी जड़ों से हाल चाल पूछता बैठ जाता हूँ. वो बताती हैं कि पेड़ होना कितने धैर्य का काम होता है. उसे याद नहीं कि उसने आखिरी बार किसी से कोई शिकायत कब की थी कि इस मौसम पानी नहीं बरसा... वो कहती हैं है कि उनके देखते-देखते इंसान कितना आगे निकल गया कि अब उसके पास खुद के लिए भी वक़्त नहीं...लेकिन आखिरी दिनों में उसे ज़रूरत पड़ती है इन सूखी लकड़ियों की. काश इस पेड़ के बयान से दुनिया की तमाम हसरतों के राज़ बेपर्दा कर पाता...वहीँ बैठा अचानक चौंक जाता हूँ कि तुमने बिना कहे पीठ पर हाथ रख दिया है. रात गहरी हो रही थी...

उसके बाद देर तक एक-दूसरे में डूबे रहे दोनों ने इंतज़ार नहीं किया चाँद का...चाँद भी कब आया और गया पता नहीं...बिन दीवारों के उस मकान में कोई खिड़की भी कहाँ थी, जिसमें कैद थी उन दोनों की रूहें...

...उसे मुसलसल कर भी आओ, वो जो अधूरी सी राह बाकी है, वो जो रुकी सी चाह बाकी है...

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तमाम बातों में एक बात यह भी है कि वक़्त का एक हिस्सा बीत जाने के बाद ज़रूरी हो जाता है, तुम्हारी याद की केंचुल उतारना...ऐसे में मुझे याद आता है कि अगर ब्लॉग नाम की ये शै नहीं होती तो मैं किस दोस्त का कंधा ढूंढ़ता...फिर कई दिनों तक ज़रूरत नहीं होती तुम्हारे साथ बिताये गुज़श्ता लम्हों की बारिश में नहाने की...कि ये ब्लॉग कोई जादुई शै है...किसी दीवाने आशिक का सिरफिरा प्रयोग।

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Image courtsey- Satyabrata Singha, a bright member of our beloved WED group.
Link- https://www.facebook.com/groups/162424393783731/#!/groups/162424393783731/

शनिवार, 29 सितंबर 2012

वजहें...




रवाजे पर कुछ आहटें होती हैं, कुछ सरगोशियां ताज़ादम वक्त की...बालकनी से आती सुबह की हवा करवट बदलती है और मेरा हाथ पकड़कर लौटा लाती हैं मुझे ख्यालों की दुनिया से वापस। जिंदगी माज़ी की कैद में है...और खुश है। इसका ग़म भी नहीं क्योंकि तुम्हारी यादों में गुंथा एकाकीपन का ये बियाबान कितना भी सूनसान क्यों ना हो, अचानक किसी मोड़ पर छलकने लगता है कुछ...और फिर कई-कई दिनों तक नम रहती हैं आंखें... कैसे और क्यों बरसती रहती हैं, उन दिनों ये समझ नहीं आता। यूं उम्मीद एक भरा-पूरा शब्द है, लेकिन मेरे एकाकीपन के अवसाद से जीत नहीं पाता। बकरी के मेमने की तरह हमेशा मेरे पहलू से चिपका ये एकाकीपन, चुप बैठा कितनी ही यादों शक्लें बुनता रहता है। कैसा अजीब अकेलापन है...तुम हो, मैं हूं, दूर तक फैला कभी खत्म ना होने वाला बियाबान है और ये एकाकीपन भी...

सोचता हूं जिंदगी अकेलेपन की गहरी और कभी ना खत्म होने वाली ओपेरा सिंफनी की तरह है...संगीत की कितनी परतें लिपटी हुई हैं तुम्हारी यादों के साज़ पर...डेस्कटॉप से चिपकी तुम्हारी तस्वीरों के कई कई फ्रेमों पर...प्याज की तरह परतें उतारता जैसे जैसे मैं अंदर तक पहुंचता हूं...तुम्हारी तमाम यादों के खालीपन का राज़ बेपर्दा होता जाता है...अब ज़हन लाख समझाए लेकिन दिल कहां मानता है कि तुम नहीं हो, कहीं नहीं हो। नातजरुबाकारी से वाइज़ की ये बाते हैं जैसी कैफियत और कितनी ही दलीलें है उसके पास। एकाकीपन शक्ल बुनता रहता है जो चुपचाप बैठी रहती है पहलू में और एक गमगीन अंधेरे में डूबता सा जाता है कुछ...शक्ल बुझती है और अचानक धुंधली होकर फिर नजर आने लगती है..मैं सचेत होकर देखता हूं...तो पाता हूं कि मेरा एक हिस्सा देर तक उस शक्ल से बातें करता रहता है और दूसरा निगाह जमाए रखता है खालीपन के अगले पैतरे पर...तमाम कोशिशें नाकाम होती जाती हैं और जिरहबख्तर हो जाते हैं बेकार, उससे आखिरी मुलाकात तक का सब्र भी नहीं रख पाते।

इस अफसुर्दा से अंधेरे से बाहर निकलने की कोशिश कई बार करता हूं लेकिन उसके लिए तुम्हारी आवाज़ के रोशनदान ज़रूरी हैं जो नहीं मिलते...ये जानता हूं कि नाकामी ही हाथ आएगी फिर भी हरवक्त उसे जीता हुआ उसे भुलाने की कोशिश में लगा रहता हूं...अंधेरे के दामन में मुंह छुपाए अंधेरे को भुला देने की नाकाम कोशिशें...

क्या जरूरी है कि ये जिंदगी करीने से जी जाए...यूं भी जिंदगी में सबकुछ सिलसिलेवार ढंग से कहां होता है। तमाम वाकयात देर शाम रस्सी से उतारकर फेंके सूखे कपड़ों की तरह बेतरतीब पड़े हैं। एक शाम अचानक कोई चला आता है और उनींदा कर जाता है...और फिर दे जाता है नींद का गहरा अंधेरा। जागने पर दिनों के गहरे फासले और शामों की देर तक बिछी रहने वाली गीली उदासी...

दो आंखें हैं...एक रोने के लिए...और एक हंसने के लिए।

जिंदगी नए पंखों से उड़ान भरती है...कुछ अच्छे और ज्यादा बुरे हालात कभी बदल ही जाते हैं वक्त के पहिए पर सफर करते...पर आप सोचते हैं जीने की वजहों के बारे में...कि कोई कानों में कहता है, जिंदगी लंबी है...यूं नहीं काटी जाती। लेकिन वजहें...जब सूने पड़े डायरी के पन्नों पर करीने से लिखना चाहें आप...वजहें...तो वो आसपास कहीं नहीं होतीं। वो होती हैं आपकी पहुंच से तकरीबन बाहर...


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Image courtesy- Purple Twilight from .vhampyreart.com
 

शनिवार, 1 सितंबर 2012

दर्द की किरमिच, यादों का पेनकिलर...




याद करने की कोशिश करता हूं कि गए साल 2 सितंबर की रात मैं क्या कर रहा था...यूं ठीक ठीक कुछ याद नहीं आता, मगर जे़हन के किसी हिस्से में एक धुंधली सी तस्वीर उभरती है। ऊंचे काले पहाड़ों के बीच किसी झोपड़ीनुमा रिहायश के एक कमरे के चारों ओर छाया घुप्प अंधेरा और उसके बीचोंबीच बैठा मैं...बाहर कंपकंपाने वाली ठंड है लेकिन मैं अंदर पसीने से भीगा हुआ, करवटें बदलता नींद के एक झटके की कोशिश में हूं... सांस लेने में तकलीफ होने पर उठता हूं तो देखता हूं बाहर अंधेरे में कुछ बेतरतीब परछाईंया टहल रही हैं...नींद से नाकामी का रिश्ता सिर्फ मुझसे नहीं है। परछाईयों से खास जान-पहचान नहीं, बस एक अधूरे सफर का रिश्ता है...जो रात के अंधेरे में गहरा होता चला जाता है। ये दार्चा है। तुमसे पहली बार मिलने के रास्ते पर मेरा पहला पड़ाव।

तुम्हें गए 9 सालों से ज्यादा का वक्त बीत चुका है, इस बीच हजारों रातें बीत चुकी हैं और अनगिनत घंटे भी जिनमें हमेशा की तरह जीतोड़ मेहनत करने वाली तुम कहां की कहां पहुंच चुकी होगी...पर मैं वहीं हूं। हां इन सालों में काला रंग कुछ और काला पड़ गया है। गुजश्ता नौ सालों में हरसफा याद रही, तुम्हारी कही एक बात कि मैं तुम्हें ज्यादा से ज्यादा 6 महीने में भूल जाऊंगा, ये याद इन तमाम दिनों के किसी पल में भी नहीं भूली, जिंदगी के सफहे पलटते रहे। तुम्हें चिट्ठी लिखने की हिम्मत, बड़ी हिम्मत से कर रहा हूं। तुम भूल पाने की शै नहीं हो।

सितंबर के नाम पर सिर्फ दो सितंबर साल दो हजार तीन याद आता है। एक-एक लम्हा, जैसे कल ही की बात हो। पहले केलोंग, दार्चा फिर लेह...रात का तीसरा पहर है। कुछ अजनबी आवाजें कमरे में पसरे सन्नाटे को तोड़ रही हैं...मेरी रातों और नींद के रिश्ते में दरार आए कयामत का वक्त बीत चुका है। वो 19जून की रात थी जब मैं गाड़ी से घर तक का सफर तय करने के लिए निकला था...ज़हन हमेशा की तरह मसरूफ था कई बेमकसद ख्यालों में...बेवजह की बातों में...जब भी मोटरसाइकिल राइड पर निकलता हूं तो लगता है तुम पीछे बैठी ऊंघ रही हो...मेरी पीठ से अपना सिर टिकाए। तेज रफ्तार में तमाम ख्यालों को खुद में गुनता-बुनता अचानक मैं किसी अधबुझी रोशनी में डूब जाता हूं...किसी तेज चीख के बाद उतरी नीम बेहोशी में कई सारी हलचलें, भाग-दौड़ सुनने का आभास होता है...वो बस परछाईयां हैं जैसे। अचानक ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरी आवाज छीन ली...मैं चाहकर भी कुछ बोल नहीं पा रहा...हिलने की कोशिश करता हूं मगर हाथ-पैरों में हरकत नहीं होती...थोड़ी देर तक समझने की कोशिश करता हूं मगर ज़हन साथ नहीं देता...हथियार डाल देता हूं...अब सांस भी नहीं आ रही, जैसे ऑक्सीजन खतम हो गयी दुनिया से...सुबकने जैसा एक अहसास तारी होता है।

आंख खोलता हूं तो सामने सफेद रंग की दीवारों पर हरे पर्दे दिखाई देते हैं...नाक अस्पताल की जानी पहचानी एनिस्थिसिया की गंध में डूबी हुई है...आभास धीरे-धीरे होश के अहसास में तब्दील होता है...सामने कार्तिक खड़ा है। मेरा राइडर दोस्त...पहले उसके लंबे भारी शरीर में होती हलचल धुंधली सी दिखती है...वो हाथ हिला रहा है...मैं पानी मांगना चाहता हूं पर मुंह बंद है। जीभ और दांतों का अहसास मुंह में कहीं नहीं होता...शायद मेरी आंखों में उभरे सवाल को भांपकर वो कहता है..."चिंता मत कर..तू ठीक है। दो दिन पहले तेरा एक्सीडेंट हो गया था एक्सप्रेसवे पर...ये कैलाश है...आईसीयू...मैं?...कार्तिक..."

मैं आंखें बंद कर लेता हूं।

याद करने के सिलसिले में याद आता है कि कंप्यूटर के एक फोल्डर में तुम्हें तीन अगस्त दो हजार तीन को भेजा एक टेक्स्टमैसेज पड़ा है- मैं उसे फिर से खोलकर देखता हूं। दो हजार दो के कई हैं...अगस्त दो हजार तीन का सिर्फ एक...तीन अगस्त की सुबह मैं कहता हूं- देहरादून जा रहा हूं, एक शूट के सिलसिले में। तुमसे मिलने की, तुम्हें देखने की इच्छा थी, पता नहीं कब पूरी होगी। हमारी तमाम ख्वाहिशों पर बेरहम दुनिया की रिवायतों के गुलाम जिन्नों की हुकूमत चलती है। और मेरे पास कोई जादुई चिराग नहीं था।  ये वो दौर था जब तुमसे मैंने तुम्हें पाने का दुबारा वादा किया था...सच कहूं, वो छलावा नहीं था।
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मेरी शराब जाने कौन पी लेता है रात गए...सिर्फ आधी बोतल रह गयी है अब। आधी भी कहां...
एक्सीडेंट को गुजरे बहत्तर रातें बीत चुकी हैं...और सोए हुए भी। करीब दो हफ्ते तक ड्रग्ड था इसलिए होश भी नहीं...लेकिन उसके बाद छाए अंधेरे ने जैसे नींद की थपकियां कहीं छुपा दी हैं। इस दौरान सिर्फ तुम ही तुम होती हो...

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हां उसे कुछ ज्यादा नहीं सोचना चाहिए।
कि तमाम कोशिशें कर लेने के बाद
मन भी हो जाता है अभ्यस्त
एक खास रंग के धुएं में लिपटे,
निर्जन का।
एकाकीपन का।

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कई रातों के अनगिन पहर बीत चुके हैं...इन तमाम रातों में अनेक पहरों में से कई के खून तो सिर्फ इस बात पर कर दिए कि तुम्हें कुछ लिख पाने की हिम्मत बाकी नहीं थी...फिर कुछ पुराने खतों का सहारा लिया और जैसे तुम बगल की करवट पर आ बैठी..."सो जाओ, रात जा रही है।" मेरे सीने में बाएं तरफ की रिब्स में फ्रैक्चर है और चेहरे के दाएं तरफ की जॉलाइन में...कुल सात। मैं करवट नहीं ले पाता, इसीलिए तुम दिखाई नहीं देती। तुम्हें चिट्ठी लिखता हूं और जैसे एक वादा तोड़ता हूं...कि कभी मुझसे कॉन्टैक्ट मत करना...इतना तो करना। बेसबब कोई उलझता है भला कब किससे...कभी अचानक अकेले बैठे...या फिर लोगों के बीच भी, बेसबब आंसूं निकल पड़ते हैं...हंसी फूट पड़ती है...याद करता हूं कि कुछ भी तो नहीं है, कहीं...दूर दूर तक।

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जब अकेले हों आप और सूनसान हो आकाश
रात हो काली और
उसकी याद...गिरेबान थामे खड़ी हो।
आसान नहीं होता तब
माज़ी को एकतरफा इल्ज़ामों की पुरानी शराब में
डुबो देना.
तुम्हारी याद से अपना गिरेबान छुड़ा लेना

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हर शाम टहलने के लिए निकलता हूं तो देखता हूं कि एक कुत्ता अक्सर इंतजार करता रहता है मेरी ही कार के नीचे बैठकर रोज मेरे आने का। जिसे मैं कुछ भी नहीं देता सिवाय प्यार से उसकी आंखों में देखने और उसके सिर पर थोड़ी देर के लिए हाथ फेरने के...  शायद उसे अहसास हो कि मेरा प्यार नुमाइश की चीज नहीं। तुम्हें लिखते हुए सोचता हूं कि देखो तो, तुम्हारे लिए ये पूरी चिट्ठी ही बेकार की है ना, बेमकसद, बेसबब।

तुम्हारी कुछ तस्वीरों पर काम किया पिछले दिनों, फुरसत से। वो अनोखी बन गयी हैं तुम्हारी तरह, बेजोड़ सुंदर। अगर तुम हां कहो तो नए दफ्तर के पते पर कुरियर कर दूं। लिफाफे पर सेंडर की जगह खाली होगी चाहो तो, वहां कोई नाम नहीं होगा...पिछली बातें याद कर सिर्फ तकलीफ नहीं होती, सुन्नता आ जाती है और थोड़ी देर के लिए सब ठहर जाता है। गुजरा वक्त एक सदमा है।
दो महीने से ज्यादा बीत चुका है. फ्रैक्चर दुरुस्त करने के मकसद से मेरा मुह बंद कर दिया गया है... मेरे दांत वायर्ड हैं। मैं जबड़े हिला नहीं सकता। ठीक तरह से बोल नहीं सकता। खाना भी नहीं खा सकता। इन उलझनों के बीच नींद का झगड़ा न्यूरो के पास पहुंच गया...मैंने उससे पूछा कि मुझे इतनी सज़ा क्यों...आखिर मैं सो क्यों नहीं पाता रात भर...उसने जवाब दिया कि रात ने डस लिया है आपको। अंधेरी रात का एक्सीडेंट एक ट्रॉमा है...जिससे आप तब तक नहीं उबरेंगे जब तक लोगों से मिलें-जुलें ना...कुछ ऐसा क्यों नहीं करते जो आपको बेहद पसंद हो...जिससे आप प्यार करते हों। ये आपकी मदद करे शायद...इस चिट्ठी में स्वार्थ नहीं है, ये तो हर साल 2 सितंबर को निभाई जाने वाली इबादत की रस्म है, पिछले नौ सालों की तरह। तुम्हें याद करते रहने का दशक पूरा करता हूं, जाने किसलिए। हमेशा की तरह...जाने किसलिए। जवाब कभी नहीं आता, फिर भी मैं ये सब लिख रहा हूं...जाने किसलिए।

ये हर रात...कौन चुरा रहा है...मेरी जिंदगी की शराब। कहीं से कोई ले आए जादुई शब्द जो कम कर दें दर्द...तन का...मन का।
नहीं। कुछ नहीं हो सकता।

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सुबह से लेकर शाम तक, लगाता रहता है वो
पुराने मंदिर के चक्कर
कभी घंटो बैठा रहता है, सूरजमुखी के खेत में...
इतनी देर से, जाने क्या टटोल रहा हूं मैं
जाने क्या खो गया है..

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Image courtesy- Stephen kellog

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

इतर* की बोतल, अहसासों की खुशबू



कुछ भी अलग नहीं है और नया भी नहीं। कुछ अलग और नया हो सकता है, इसकी उम्मीद सच नहीं। उम्मीद तो बस उम्मीद होती है, एक और शय। जैसे निराश हो जाना। ये याद रहता है कि कहीं कुछ नहीं बदलेगा, लेकिन फिर भी नाउम्मीद होना अच्छा नहीं होता। भरोसा टूटने से भ्रम का बना रहना अच्छा।
बीफोर यू अचीव इट, यू मस्ट बिलीव इट...फिर चाहे वो भ्रम ही क्यों ना हो, है ना? फिर इस भ्रम का इतर*, तुम्हारे होने की खुशबू से कहां कम है...
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काश मैं बांध पाता खुशबुएं भी
तुम्हारी,
जो कैद हैं कहीं आरजुओं की
पुरानी दीवारों में...
फ्रेम कर पाता उनको,
और टांगता कुछ गैरहासिल
तमन्नाओं के ड्राइंग रुम में,
तुम्हारी ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर की तरह।


कभी रास्तों पर चलते हुए
कभी यूं ही अचानक पुरानी डायरी के पन्ने पलटते
कभी आलमारी से उलझते
तुम्हारी दी हुई ब्लू शर्ट की तहों में
उपन्यास के पहले पन्ने पर टटोलते हुए
तुम्हारे लिखे, मेरे नाम के अक्षर...


देर शाम खोलता हूं वो डिओडरंट की गुलाबी शीशी,
और बेसिन पर अबतक वैसी ही रखी
फेसवॉश की सफेद ट्यूब को देर तक सूंघते हुए,
अचानक मुकम्मल हो जाता है इश्क
तुम बाथरूम का दरवाजा पीटती हुई पूछती हो
दफ़्तर नहीं जाना क्या?


वो पूछता है भीड़ भरे चौराहे पर बैठे
पंडित जी के तोते से,
क्यों चली गयी तुम...
और काटता है चक्कर पुरानी मस्जिद वाले वाइज के,
लिखकर मिटा देता है, ख्वाहिशें, आरजुएं, तमन्नाएं.
कि सब अंधे और बहरे हैं।


और अचानक खुशबुओं के जाल में
कैद हो जाते हैं उसके दिन-रात
कई हफ्तों तक नहीं रहता ख्याल
भीड़ के वजूद का, अपने होने का,
सोचता हूं,
तुमसे सुंदर तो सिर्फ मृत्यु होगी...शायद।


हां, ये भी शायद।



*इतर- इत्र
Image courtesy- Lena carpinsky, .artbylena.com

परछाईयां

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