कुछ उनकी, जिन्हें पढ़ते, सुनते ज़हन की शाखों ने लोच खाना सीखा...
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वो जो शायर था चुप-सा रहता था
बहकी-बहकी-सी बातें करता था
आँखें कानों पे रख के सुनता था गूँगी खामोशियों की आवाज़ें!
जमा करता था चाँद के साए
और गीली- सी नूर की बूँदें
रूखे-रूखे- से रात के पत्ते
ओक में भर के खरखराता था
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वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था
हाँ वही, वो अजीब- सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चाँद की ठोड़ी चूमा करता था
चाँद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है...
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Poetry of Gulzar.
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Image courtesy- artofamerica dot com
6 टिप्पणियां:
जान ही ले लो अब!
तुम क्या खूब लिखते हो यार...रश्क होता है तुमसे!
काश कि मुझे भी तुम्हारी ही तरह खुद पर अंधा विश्वास होता खुद पर...ये गुलजार ने लिखी है पूजी। लेकिन खुद से बातें करती लगी, तो ब्लॉग पर इसके दस्तखत ले लिए...
यादगार रचना रही।
पूजा से बिलकुल सहमत...ये चाहे आपने न लिखी हो पर वाकई आप बहुत अच्छा लिखते हैं..आपका पूरा ब्लॉग पढ़ा है मैंने...आज मैंने भी अपने ब्लॉग जो अभी बस २ दिन पुराना ही है,पर गुलज़ार साब की आवाज़ में एक amazing कविता जो फिल्म आस्था से है,अपलोड की है..वक़्त निकालकर सुनियेगा,आपको भी यक़ीनन पसंद आएगी..itz www.prachinpoems.blogspot.com
@sandeep- जय जाट
@prachi- ज़रूर प्राची, समय मिलते ही
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