पहला हस्ताक्षर...

कुछ-कुछ पहले जैसा...

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

एतबार





ये पहले लिख दूं, कि इन पंक्तियों में हार की हताशा नहीं, जीत जाने का हौसला है। पा सकने और पा लेने का एतबार है.
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ये डूबता सूरज,
तिनका तिनका बिखरती...
गहरी उदास शाम,
कुछ देर में स्याह अंधेरे के आगे,
घुटने टेक देगी ये।

जाने कब से निहार रहा हूं इसको...
आंखें थक रही हैं,
पर कान नहीं मानते...
जाने कब से पहरा दे रहे हैं दरवाजे पर,
तुम्हारी आहटों का इंतज़ार है इनको...
तुम्हारे आने का एतबार है इनको...
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मनके-मनके मन, तिनका-तिनका तन।

बुधवार, 21 सितंबर 2011

आख़िरी ख़त, ज़ोया के नाम...





इस कहानी में भी दो किरदार हैं। आपकी, मेरी और किसी और की कहानी की तरह...सम्बंध हमेशा गहरे समर्पण से शुरु होते हैं लेकिन आपसी नासमझियां और वक्त की चाल उनमें ऐसी दरारें डाल देती हैं जिन्हें भर पाने का सीमेंट-गारा अब तक नहीं बना...जो लोग दरारों के साथ जीने का फैसला करते हैं, उसे समझौता कहते हैं, जिंदगी नहीं। ये चिट्ठी ज़ोया के नाम है...क्या पता, वो दुनिया के जिस भी हिस्से में हो, इसे पढ़ ले शायद...
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प्यारी जो,
देर से ऊंघ रहा हूँ, लेकिन नींद नदारद है. कहीं रुक या अटक सी गयी है शायद, ठहरी हुई खामोश रात की तरह. हवा भी ना जाने कैसे जमकर ठोस सी हो गयी है.. सांस लेने की भी मानो कोशिश सी करनी पड़ रही है.
काफी देर से, छत पर लटके, घूमते पंखे की ओर देख रहा हूँ.
कमरे में हरे रंग का जीरो वाट का बल्ब जल रहा है. बल्ब की मद्धम रौशनी में पंखे के चलने से हर ब्लेड की परछाईं बन रही है..और हर परछाईं अपने से ठीक आगे वाली परछाईं को छूने की कोशिश में भाग रही है...देख रहा हूँ, काफी देर से ये परछाइयाँ इसी कोशिश में हैं, कि एक दूसरे को पा लें, और इनकी ये कोशिश बिना रुके, बिना थके जारी है.
सन्नाटे के बावजूद परछाइयों का ये खेल ज़ेहन में ख्यालों की आंधियां चला रहा है. धमाचौकड़ी सी मची है.
इन सब के बीच मन बार बार अल-कौसर के सामने की सड़क पर जा पहुँचता है. किसी को ढूंढता है, नहीं पाकर निराश होकर तेज़ी से उन्ही सड़कों में इधर-उधर घूमने लगता है.
भागती हुई परछाइयाँ फिर दीखने लगती हैं. मानो उन्हें समझाना चाहता हूँ कि रुक जाओ, तुम एक दूसरे से कभी नहीं मिल सकते.
पर मैं कुछ सोचकर चुप रह जाता हूँ, कुछ नहीं कहता.
मन पूछता है, कि जो हुआ, वो क्यूँ हुआ? क्या जीवन की वास्तविकता यही है?
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जब भी मुझे तुम्हारी ज़रुरत होती है, तुम वहां नहीं होते. तुम शायद वो नहीं जिसे मैंने करोड़ों की भीड़ में ढूंढ़ा था, जिससे मेरा लगाव हुआ था. तुम इतने संवेदनहीन कैसे हो सकते हो, पशु की तरह? तुम्हें ख़ुशी मिलती है मुझे रुलाकर...हमारे बीच सबसे बड़ी समस्या तो बात ना करने की है...और हमेशा की तरह तुम्हारा ये चुप हो जाना!!

और तुम कार का दरवाज़ा खोल कर चली जाती हो, मुझे विश्वास नहीं होता...
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कई बार मुझे कुछ भी समझ नहीं आता जो. लगता है अपनी ओर से कोशिश तो मैं पूरी कर रहा हूँ पर वो पर्याप्त नहीं पड़ रहीं.
यूँ तो हर इतवार के बाद का सोमवार हमेशा भयावह रहा है हमारे बीच, पर आज जैसा फट पड़ना पहले कभी नहीं हुआ था, वो भी दो अनजाने, बाहरी लोगों के सामने. तुम कहती हो मैं हमेशा की तरह चुप हो गया था।
तब, अचानक कुछ चमक सा रहा था मेरी आँखों के आगे, दुःख के चमकीले एहसास की तरह.
दुःख के चमकीले एहसास की तरह??
हाँ, शायद दुःख भी चमकीला हो जाता है, अगर आप से उसकी पहचान गहरी हो जाये.
मन के किसी कोने में मैं जान गया था कि तुम कुछ ऐसा ही करोगी...मानो मैंने पहले भी कई-कई बार कहीं ऐसा होते देखा है....जैसे मैं ऐसे ही कई कई बार पीछे भागा हूँ... जैसे मैंने ये सब कई कई बार किया है...सब कुछ, अचानक बढ़ गए तनाव को शिथिल करने के लिए...किसी और वजह से नहीं.
क्या यही प्रेम है?
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जो, सोमवार की ये घटना महत्त्वपूर्ण है. हम दोनों के ही साझे जीवन पर गहरा असर डालने वाली. ये बताती है कि तुममें अब बुनियादी किस्म के बदलाव आने लगे हैं. सौ फीसदी मेरे व्यवहार की वजह से, मेरी ही नाक़ाबिली की वज़ह से, तुम ज्यादा गुस्सैल हो गयी हो. और जहां तक मेरा सवाल है, मैं तो मनुष्य के इस पक्ष को लेकर हद से ज्यादा बेपरवाह हूँ. कुछ साल पहले कम था, अब अभ्यस्त हो गया हूँ.
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प्रेम का अंकुरण मन की गीली मिटटी पर होता है. भावों का, संवेदनाओं, एक-दूसरे का ख्याल रखने का पानी मिलता रहे तो पौधा बढ़ता है, फूलता फलता है. मिटटी एक बार रौंद दी जाये, तो सूख जाती है, पौधा मुरझा कर बेजान हो जाता है.
मेरे मन की मिटटी कुछ कुछ सूखने सी लगी है जो. मन के तारों पर जंग सी लग गयी है...अब। तुम शायद सही कहती हो...मैं संवेदनहीन होता जा रहा हूँ..
पर क्या सबके प्रति?
नहीं.
और किसी से मेरे प्रेम का सम्बन्ध उत्तरदायित्व का नहीं. बाकियों पर ध्यान ना देकर, उनकी नाराज़गी की अनदेखी कर जीवन बिता पाना अपेक्षाकृत आसान है. लेकिन तुम्हारी अनदेखी कर...
!!!
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जो, दरअसल ठीक ठीक मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा. लगता है अपनी ओर से कोशिश तो मैं पूरी करता हूँ पर वो पर्याप्त नहीं पड़ रहीं. फिर ये भी लगता है कि कहीं मेरी संवेदना-असंवेदना के प्रश्नों से घिरी तुम अपना जीवन निरर्थक तो नहीं कर रही? आज के बाद अचानक मन में ये प्रश्न उभरा हैं. मेरे जीवन के कुछ दूसरे जीवित अध्याय हैं, जिनमें मैं अपनी ओर से भी शामिल हूँ. पर तुम, तुम्हारा तो मेरे प्रति समर्पण एकात्मक है. क्या ये कहीं से भी न्यायोचित होगा की मेरे जीवन के प्रश्नों का समाधान ढूंढते-ढूंढते तुम्हारा स्वयं का जीवन स्वाहा हो जाये?
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परछाइयों का खेल जारी है...जब तक पंखा चलता रहेगा, धमाचौकड़ी चलती रहेगी...मानो उन्हें समझाना चाहता हूँ कि रुक जाओ...अब तुम थक गए हो।
पर मैं कुछ सोचकर चुप रह जाता हूँ, कुछ नहीं कहता.
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और अंत में,
लिखी भाग्य में जितनी बस,
उतनी ही पायेगा हाला.
लिखा भाग्य में जैसा,
बस वैसा ही पायेगा प्याला.
लाख पटक तू हाथ पांव पर,
इससे कब कुछ होने का.
लिखी भाग्य में जो तेरे,
बस वही मिलेगी मधुशाला...
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Image courtesy- An artwork by Leonord Afremov, a Belarusian painter

बुधवार, 14 सितंबर 2011

सिलसिला शुरू हुआ...



रीब तीन साल पहले जब ब्लॉग बनाया था, तो सोचा था की रोज़ कुछ लिखा जायेगा, जिन अनगिनत कहानियों से हर रोज़ दो-चार होता हूँ, उनमें से रेशा-रेशा ही सही, कुछ हिस्सों में सबमें बांटूंगा...लेकिन समय के अभाव ने ऐसा करने नहीं दिया. मालूम होता है कि वो समय का अभाव नहीं था, सिर्फ आलस्य था. आज लगता है कि समय का अभाव तो कभी होता ही नहीं, सिर्फ उसका कु-प्रबंधन और इच्छा-शक्ति का अभाव होता है. सो आज तय करके बैठ गया कि लिखना ही है. एक मित्र ने फेसबुक पर लिखा- आज बहुत दिनों में कुछ लिखा, तो महसूस हुआ कि कई दिनों तक नेट-प्रैक्टिस न करे, तो कैसे गेंदबाज़ वाइड और नो-बाल फेंकता है....इसलिए पहले ब्लॉग से ही विकेट तो नहीं ले सकता, स्टंप के आस-पास ज़रूर फ़ेंकने की कोशिश रहेगी. 
आज संयोग से हिंदी दिवस भी है...तो क्यूँ न शुरुआत उसके शोक-गीत से ही की जाये. आईआईएमसी में ६ साल पहले इसे मंच से सुनाया था, ईनामी चेक तो नहीं मिला, तालियाँ ज़रूर हाथ आई थी...

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हिंदी दिवस- एक शोकगीत
एक छोटी सी बात कहनी है आप से,
छोटी सी, जो कुछ ही क्षणों में चुक जायेगी.
ठीक वैसे ही, जैसे एक ही दिन में,
चुक जाएगा यह हिंदी दिवस.

बेचारी हिंदी के लिए,
फिर आ जाएगी अंधेरी रात,
बीत जाएगी इस दिवस के 
संक्षिप्त-सीमित-पूर्वनियोजित उजाले की बात.

मैं निकला घर से आज, अलसुबह,
देखा सफ़ेद साडी के चीथड़ों में,
बमुश्किल लिपटी एक बुढिया
सुबक रही है.
कराहती उस आकृति के चारों ओर,
बना था तीव्र वेदना का एक वृत्त,
जो मुझे बरबस खींच ले गया उसकी ओर,

पूछा मैंने जाकर पास, अम्मा क्यूँ रोती हो.
क्या है ऐसी तकलीफ कोई,
जो बाँट सकूँ मैं अपिरिचित?
उसने मेरी ओर नज़र उठाये बगैर कहा,
बेटा छोड़ो यह संवेदनाएं, यथार्थ की राह लो,
कुछ नई नहीं है मेरी कहानी,
मैं हूँ तुम्हारी राष्ट्रभाषा,
बुढिया पुरानी.
हिंदी नाम है मेरा!!
जिसे उसके अपनों ने ही पराया कर दिया,
अंग्रेजी को ऐसे सर चढ़ाया,
कि मुझे अपने ही घर से बाहर कर दिया!

कहा तू अब किसी काम की नहीं है,
तुझमें अब न रोटी है न कमाई,
यही नहीं, अब तो तुझे बोलने में,
कोई शान भी नहीं है.
बड़े विद्वानों के लिए तुझमें,
विचारों का अन्वेषण भी संभव नहीं  है.

ज़रा अंग्रेजी को देख...नए-नए मौलिक विचार,
नित नयी अवधारणाए मानो फूट पड़ती हैं इससे,

फिर अंग्रेजी का तो एक स्टेटस है,
और तू?
तू तो मुरझाया हुआ एक कैक्टस है...
जिसे हिंदी दिवस का पानी पिला पिला कर,
साल भर जीवित रखा जाता है.

हिंदी कहती जा रही थी...
वो भूल गए अब, कि मैं,
भारतेंदुओं, निरालों कि जननी हूँ,
कभी मन-वचन-कर्म से अपनाते,
तो पाते,
कितने मौलिक विचारों की सर्जनी हूँ.
अरे वो तो वहां से भी दुत्कारे जायेंगे,
जब अँगरेज़ उनसे उनकी भाषा का प्रश्न पूछेंगे,
तो क्या मुह दिखायेंगे?
आवेश में फिर फूट पड़ी हिंदी.

मुझसे अब रहा न गया, और मैं
वहां से उठकर चल दिया.

शाम को वापस उसी जगह से गुज़र रहा था,
मैंने देखा, पोस्टरों और बैनरों के बीच,
उसी बुढिया को रेशमी साडी में,
मंच पर बिठाया गया है,
उसके चारों ओर लोग,
तरह-तरह के भाषणों में व्यस्त हैं,
इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता,
किसी ने मेरा हाथ पकड़ा और हिलाते हुए बोला,
भाई, हैप्पी हिंदी डे!!!
मैं समझ गया,
मैं समझ गया कि फिर हिंदी-पुत्रों ने हिंदी को,
मूर्ख बनाया होगा,
ज़रूर फिर से हिंदी दिवस आया होगा.
ज़रूर फिर से हिंदी दिवस आया होगा....
   
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Image courtesy- artofamerica dot com

परछाईयां

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