पहला हस्ताक्षर...

कुछ-कुछ पहले जैसा...

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

Aajiya


                        धीमी आंच पर पकता है जिंदगी का गीत

तीन साल पहले की आखिरी पोस्ट। ताजा दो हजार सोलह के चार महीने बीत जाने के बाद...और इस बीच उम्र की पगडंडियों से गुजरते कितने ही रास्तों की जांच में सालों का वक्त ज़ाया कर लिया। ये पता करने को, कि वो कहीं नहीं पहुंचते। समय की नदी से होकर न जाने कितना पानी बह गया। पलट कर देखता हूं तो लगता है, अब भी वहीं कहीं हूं। पहुंचने की खूब कोशिश करता हूं लेकिन पहुंचता कहीं नहीं। हसरतों का सुलगता हवन कुंड है जिंदगी और उसमें सांसों की आहुति डालते हम दिन रात कुछ हो जाने की कोशिश ही तो करते हैं, ढेर सारी ईमानदारी और थोड़ी सी बेईमानी से।
कल तुम्हें इंटरनेट पर ढूंढ़ रहा था, अचानक जानने की इच्छा जागी कि देखूं, तुम सांप सीढ़ी के इस खेल में अब कहां हो। देखकर खुशी हई...वीपी एंड ऑल दैट हां?
पाने और खोने के हिसाब में कभी अपना बजट सरप्लस हुआ हो, ऐसा जिंदगी का कोई साल नहीं आया अब तक। लेकिन जब कोई अपना बिना बताए चला जाए तो लगता है मानो कुछ ऐसा चला गया हो जिसकी कमी अब अपूरणीय है। तुम्हें सोचते हुए अचानक कभी धरती डोलने लगती है, आसमान तेजी से घूमने लगता है। क्रोधमिश्रित दुख की एक तीव्र पीड़ा होती है। मन का आकाश खाली हो जाता है और उसमें उभरती है तुम्हारी छवि। जिसे हम देख भर सकते हैं, छूकर महसूस नहीं कर सकते। चूम नहीं सकते। प्यार नहीं कर सकते। खूब जोर से अपनी बांहों में भरकर खुद से चिपका नहीं सकते।

आजी का चले जाना, जो इस बीच हुआ, कुछ ऐसा ही था।

यूं हममें से कोई बताकर कहां जाता है कभी लेकिन तुमने तो कोई इशारा भी नहीं किया। आहट भी नहीं होने दी कि तुम्हारे जाने का वक्त आता है अब। लेकिन मानो तुम्हारे बुलावे पर वक्त आया और तुमने धर दी अपनी चदरिया। जस की तस। हां, जस की तस...
आजी ऐसी ही थीं। होकर भी नहीं, और ना होकर भी हर जगह। मेरी फोनबुक पर सबसे ऊपर तुम्हारा नाम है, ट्रिपल ए के साथ आजिया...बीते दस सालों में बमुश्किल बीस बार तुमसे फोन पर बात हुई होगी मेरी, है ना? लेकिन फिर भी तुम ऐब्सेंट नहीं थी, और ना कभी ऐसा हो जाने का भाव आया था मेरे मन में। ऐसा लगता था कि तुम हो, और हमेशा रहोगी। अगली ही फुरसत में तुम्हारे साथ रह लूंगा...वक्त बिता लूंगा। वो फुरसत आई तो तुम्हारे इस दुनिया से चले जाने के बाद। फागुन की बारिश सी बेमानी फुरसत। क्या करूं इसका अब?
याद करने के क्रम में बचपन के सालों के सीले पन्ने पलटता हूं तो याद आता है घर में हर बड़े से पिटने वाले इस बच्चे की जिंदगी में अकेली तुम थी जो उसकी आंखों में कभी आंसू नहीं देख सकती थी। उसकी एक मुस्कुराहट के लिए अगर तुम्हारे बस में होता तो एक नयी दुनिया बना सकती थी, और उसे मिटा भी। तुम्हारे सामने किसी की हिम्मत नहीं हुई कि उस बच्चे को कोई छू भी सके। इस बच्चे ने बहुत बाद में अंग्रेजी उपन्यासों में अनकंडीशनल लव यानी बिना किसी शर्त या बदले की इच्छा के प्रेम का फ्रेज़ पढ़ा। जब पीछे मुड़कर इस उसने याद करने की कोशिश की, कि आखिर अपनी जिंदगी में किस एक शख्स की उपस्थिति को वो इस फ्रेज़ से जोड़े, तो जो तस्वीर उभरी, वो तुम्हारी थी। ये उस पर सालों से तुम्हारे प्यार की ही शक्ल में बरस रहा था। तुमने प्यार बस दिया, देती गयी...तब तक देती रही जब तक तुम्हारा जिस्म ठंडा और बेजान नहीं हो गया। बिना किसी अपेक्षा के...चाहा तो सिर्फ इतना कि उस बच्चे की आंखों में कभी आंसू न आए। उसके होठों की मुस्कान खिली रहे चमकीले फूल सी।
आजी, तुम्हारा पार्थिव शरीर मेरे जीवन में शव का पहला स्पर्श है। मैं अपनी उंगलियों की पोरों में आज भी वो बेजान ठंडक महसूस कर सकता हूं। मेरी छुअन की गर्माहट लाख कोशिशों के बाद भी तुममें कोई हरकत जगा पाने में नाकाम थी। उस सख्त सी ढीली पड़ी देह में कहीं कोई जुंबिश नहीं थी। मैं तुम्हारी पथराई आंखों के अपनी तरफ मुड़ने का इंतजार करते हुए तुम्हारी हथेलियों में अपने हाथों की गर्माहट मल रहा था...ये जानते हुए भी कि कई घंटों पहले तुम इस बात की उम्मीद मन में लिए चली गयी कि आखिरी बार हम सबको देख सको। लेकिन ये इच्छा पूरी नहीं हुई तुम्हारी।
तेरह दिनों तक मैं तुम्हारे पास सिर्फ इसलिए रुका रहा कि जान सकूं इंसानी मजबूरी की वजहों को। कि कैसे पीढ़ियां रोटी के लिए पलायन करती हैं। जाने क्या पा लेने और हो जाने की कोशिश में हम उनके लिए वक्त नहीं निकाल पाते जिनसे हमारा वजूद है। जिनके होने से हमारी पहचान है। तुम्हारे बारे में, तुम्हारी अच्छाईयों और अकूत संघर्ष कर पाने की क्षमता के बारे में लिखूं तो जाने ऐसे कितने ब्लॉग भर जाएंगे लेकिन उस क्षमता को शब्दों में ढालने का न्याय न हो सकेगा।
इस चिट्ठी भर को मेरी श्रद्धांजली मानना आजी। तुम जहां कहीं हो, जिस भी दुनिया में...वहां तुम खुश रहना। और यहां मेरी ताकत बनी रहना हमेशा। तुम हमेशा खुश रहोगी चाहे जहां रहो भी, क्योंकि तुममें अद्भुत ताकत थी कर्म की। यहां मैं कोशिश करूंगा कि हम सब जैसे भी हैं, उससे बेहतर इंसान बन सकें। बनने की कोशिश कर सकें...पहचान सकें, साहस, कर्तव्य, संघर्ष जैसे शब्दों की गरिमा...सीख सकें, बिना शर्त के देना...प्यार !! कि तुम्हारी तरह एक शानदार मृत्यु का आलिंगन करने से पहले हमें मुक्त कंठ से गाना सीखना है, गीत जिंदगी का...

परछाईयां

...