पहला हस्ताक्षर...

कुछ-कुछ पहले जैसा...

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

वो जो अधूरी सी...



जैसे देर शाम तक मुझसे लिपटा तुम्हारी यादों का धुआं रात गए बर्फ बनकर बरस गया हो. कल शाम तक चीड़ और देवदार के इन घने जंगलों में तीखी हवाओं की सिहरन थी...सूरज ने वक़्त पर विदा ले ली, चाँद हमेशा की तरह कहीं अटका था...और मैं खुले आसमान के नीचे ठिठुरता, तारों को ताकता, सोच रहा था कि इस वक़्त तुम कहाँ होगी, क्या कर रही होगी...किसका आँगन तुम्हारे नूर से रोशन होगा...दिल की आवाज़ को चॉकलेट दिलाने का लालच देकर चुप करा देता हूँ, कि वो कोई इत्तेफाक नहीं रखता दुनिया की कडवी सच्चाइयों से. दिल कह रहा है, उसे मयस्सर कर भी आओ...वो जो दबी सी आंच बाकी है।

आंच तो बस यादों में है जिनसे यह दरमियानी बर्फ नहीं पिघलती. तुम्हारे मेरे दरमियाँ इस बर्फ के सिवा क्या है...!

आमतौर पर इन दिनों यहाँ बर्फ नहीं पड़ती...पड़ती भी है तो इतनी नहीं. सुबह उठा तो देखता हूँ बुलेट शफ्फाक बर्फ से ढंकी हुई है। करीब तीन इंच मोटी परत...यह गाँव है स्याबा... उत्तरकाशी से हरसिल की तरफ जाते हुए करीब 14 किलोमीटर सड़क के रस्ते और फिर एक मोड़ से बाएं मुड़कर करीब 4 किलोमीटर अन्दर, घने जंगलों में। शहर की अमरबेल सी फैलती ख्वाहिशों से दूर। स्याबा फुर्सत है, ख़ामोशी है, और तुम्हारी बातों, तुम्हारी यादों में ब्लेंडेड एक अकेलापन...एक दुरुस्त नशा है। इन दिनों अपने एक पुराने दोस्त का मेहमान हूँ। यूँ उसने कहा तो था अकेले ही आने को लेकिन अब वो रश्क भरी ताज्जुब में है कि तुम्हें भी साथ ले आया हूँ। वो हैरत से पूछता है, इतने सालों बाद भी?...साल? वक़्त कहाँ ठहरा है, याद नहीं...

अगर आप कहीं ढूंढ़ पायें इस गाँव को अपने चराग-ए-गूगल से तो बिना किसी तैयारी के आइयेगा. ठीक वैसे ही जैसे इस दुनिया में आये थे. अगर गाँव के किसी घर में गरीबी ने एक रोटी भी बचाई होगी तो उस परिवार से पहले उस पर आपका हक होगा. यह मेहमान'नवाजी उनके खून में है, उनके अदब का हिस्सा नहीं. वो जानते हैं कि ज़िन्दगी बेहद संघर्ष भरी है. कभी मैदान से निकला कोई रुसवा बादल फटता है तो समंदर बनकर बरसता है...तो कभी बिन मांगी दुआओं सी बरसती रहती है बरफ, कई-कई दिनों तक. ऐसे में ज़िन्दगी है तो बस आज, इसी मौके. जो खा लिया, वो अपना. जितनी देख ली उतनी ही दुनिया. दो टुकड़ों में सही मगर यह उनकी बज़्म-ए-शाही है...

नज़रों का बयान यह है कि आँखें जहाँ तक देख पाती हैं बस बियाबान है. मगर इन देवदारों से पुराना ताल्लुक लगता है. पेट भरा हो और पास रखी हो एक वक़्त की शराब तो दिल को बेफिक्री घेर लेती है. ऐसे में देवदार के किसी पेड़ के नीचे उसकी जड़ों से हाल चाल पूछता बैठ जाता हूँ. वो बताती हैं कि पेड़ होना कितने धैर्य का काम होता है. उसे याद नहीं कि उसने आखिरी बार किसी से कोई शिकायत कब की थी कि इस मौसम पानी नहीं बरसा... वो कहती हैं है कि उनके देखते-देखते इंसान कितना आगे निकल गया कि अब उसके पास खुद के लिए भी वक़्त नहीं...लेकिन आखिरी दिनों में उसे ज़रूरत पड़ती है इन सूखी लकड़ियों की. काश इस पेड़ के बयान से दुनिया की तमाम हसरतों के राज़ बेपर्दा कर पाता...वहीँ बैठा अचानक चौंक जाता हूँ कि तुमने बिना कहे पीठ पर हाथ रख दिया है. रात गहरी हो रही थी...

उसके बाद देर तक एक-दूसरे में डूबे रहे दोनों ने इंतज़ार नहीं किया चाँद का...चाँद भी कब आया और गया पता नहीं...बिन दीवारों के उस मकान में कोई खिड़की भी कहाँ थी, जिसमें कैद थी उन दोनों की रूहें...

...उसे मुसलसल कर भी आओ, वो जो अधूरी सी राह बाकी है, वो जो रुकी सी चाह बाकी है...

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तमाम बातों में एक बात यह भी है कि वक़्त का एक हिस्सा बीत जाने के बाद ज़रूरी हो जाता है, तुम्हारी याद की केंचुल उतारना...ऐसे में मुझे याद आता है कि अगर ब्लॉग नाम की ये शै नहीं होती तो मैं किस दोस्त का कंधा ढूंढ़ता...फिर कई दिनों तक ज़रूरत नहीं होती तुम्हारे साथ बिताये गुज़श्ता लम्हों की बारिश में नहाने की...कि ये ब्लॉग कोई जादुई शै है...किसी दीवाने आशिक का सिरफिरा प्रयोग।

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Image courtsey- Satyabrata Singha, a bright member of our beloved WED group.
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शनिवार, 29 सितंबर 2012

वजहें...




रवाजे पर कुछ आहटें होती हैं, कुछ सरगोशियां ताज़ादम वक्त की...बालकनी से आती सुबह की हवा करवट बदलती है और मेरा हाथ पकड़कर लौटा लाती हैं मुझे ख्यालों की दुनिया से वापस। जिंदगी माज़ी की कैद में है...और खुश है। इसका ग़म भी नहीं क्योंकि तुम्हारी यादों में गुंथा एकाकीपन का ये बियाबान कितना भी सूनसान क्यों ना हो, अचानक किसी मोड़ पर छलकने लगता है कुछ...और फिर कई-कई दिनों तक नम रहती हैं आंखें... कैसे और क्यों बरसती रहती हैं, उन दिनों ये समझ नहीं आता। यूं उम्मीद एक भरा-पूरा शब्द है, लेकिन मेरे एकाकीपन के अवसाद से जीत नहीं पाता। बकरी के मेमने की तरह हमेशा मेरे पहलू से चिपका ये एकाकीपन, चुप बैठा कितनी ही यादों शक्लें बुनता रहता है। कैसा अजीब अकेलापन है...तुम हो, मैं हूं, दूर तक फैला कभी खत्म ना होने वाला बियाबान है और ये एकाकीपन भी...

सोचता हूं जिंदगी अकेलेपन की गहरी और कभी ना खत्म होने वाली ओपेरा सिंफनी की तरह है...संगीत की कितनी परतें लिपटी हुई हैं तुम्हारी यादों के साज़ पर...डेस्कटॉप से चिपकी तुम्हारी तस्वीरों के कई कई फ्रेमों पर...प्याज की तरह परतें उतारता जैसे जैसे मैं अंदर तक पहुंचता हूं...तुम्हारी तमाम यादों के खालीपन का राज़ बेपर्दा होता जाता है...अब ज़हन लाख समझाए लेकिन दिल कहां मानता है कि तुम नहीं हो, कहीं नहीं हो। नातजरुबाकारी से वाइज़ की ये बाते हैं जैसी कैफियत और कितनी ही दलीलें है उसके पास। एकाकीपन शक्ल बुनता रहता है जो चुपचाप बैठी रहती है पहलू में और एक गमगीन अंधेरे में डूबता सा जाता है कुछ...शक्ल बुझती है और अचानक धुंधली होकर फिर नजर आने लगती है..मैं सचेत होकर देखता हूं...तो पाता हूं कि मेरा एक हिस्सा देर तक उस शक्ल से बातें करता रहता है और दूसरा निगाह जमाए रखता है खालीपन के अगले पैतरे पर...तमाम कोशिशें नाकाम होती जाती हैं और जिरहबख्तर हो जाते हैं बेकार, उससे आखिरी मुलाकात तक का सब्र भी नहीं रख पाते।

इस अफसुर्दा से अंधेरे से बाहर निकलने की कोशिश कई बार करता हूं लेकिन उसके लिए तुम्हारी आवाज़ के रोशनदान ज़रूरी हैं जो नहीं मिलते...ये जानता हूं कि नाकामी ही हाथ आएगी फिर भी हरवक्त उसे जीता हुआ उसे भुलाने की कोशिश में लगा रहता हूं...अंधेरे के दामन में मुंह छुपाए अंधेरे को भुला देने की नाकाम कोशिशें...

क्या जरूरी है कि ये जिंदगी करीने से जी जाए...यूं भी जिंदगी में सबकुछ सिलसिलेवार ढंग से कहां होता है। तमाम वाकयात देर शाम रस्सी से उतारकर फेंके सूखे कपड़ों की तरह बेतरतीब पड़े हैं। एक शाम अचानक कोई चला आता है और उनींदा कर जाता है...और फिर दे जाता है नींद का गहरा अंधेरा। जागने पर दिनों के गहरे फासले और शामों की देर तक बिछी रहने वाली गीली उदासी...

दो आंखें हैं...एक रोने के लिए...और एक हंसने के लिए।

जिंदगी नए पंखों से उड़ान भरती है...कुछ अच्छे और ज्यादा बुरे हालात कभी बदल ही जाते हैं वक्त के पहिए पर सफर करते...पर आप सोचते हैं जीने की वजहों के बारे में...कि कोई कानों में कहता है, जिंदगी लंबी है...यूं नहीं काटी जाती। लेकिन वजहें...जब सूने पड़े डायरी के पन्नों पर करीने से लिखना चाहें आप...वजहें...तो वो आसपास कहीं नहीं होतीं। वो होती हैं आपकी पहुंच से तकरीबन बाहर...


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Image courtesy- Purple Twilight from .vhampyreart.com
 

शनिवार, 1 सितंबर 2012

दर्द की किरमिच, यादों का पेनकिलर...




याद करने की कोशिश करता हूं कि गए साल 2 सितंबर की रात मैं क्या कर रहा था...यूं ठीक ठीक कुछ याद नहीं आता, मगर जे़हन के किसी हिस्से में एक धुंधली सी तस्वीर उभरती है। ऊंचे काले पहाड़ों के बीच किसी झोपड़ीनुमा रिहायश के एक कमरे के चारों ओर छाया घुप्प अंधेरा और उसके बीचोंबीच बैठा मैं...बाहर कंपकंपाने वाली ठंड है लेकिन मैं अंदर पसीने से भीगा हुआ, करवटें बदलता नींद के एक झटके की कोशिश में हूं... सांस लेने में तकलीफ होने पर उठता हूं तो देखता हूं बाहर अंधेरे में कुछ बेतरतीब परछाईंया टहल रही हैं...नींद से नाकामी का रिश्ता सिर्फ मुझसे नहीं है। परछाईयों से खास जान-पहचान नहीं, बस एक अधूरे सफर का रिश्ता है...जो रात के अंधेरे में गहरा होता चला जाता है। ये दार्चा है। तुमसे पहली बार मिलने के रास्ते पर मेरा पहला पड़ाव।

तुम्हें गए 9 सालों से ज्यादा का वक्त बीत चुका है, इस बीच हजारों रातें बीत चुकी हैं और अनगिनत घंटे भी जिनमें हमेशा की तरह जीतोड़ मेहनत करने वाली तुम कहां की कहां पहुंच चुकी होगी...पर मैं वहीं हूं। हां इन सालों में काला रंग कुछ और काला पड़ गया है। गुजश्ता नौ सालों में हरसफा याद रही, तुम्हारी कही एक बात कि मैं तुम्हें ज्यादा से ज्यादा 6 महीने में भूल जाऊंगा, ये याद इन तमाम दिनों के किसी पल में भी नहीं भूली, जिंदगी के सफहे पलटते रहे। तुम्हें चिट्ठी लिखने की हिम्मत, बड़ी हिम्मत से कर रहा हूं। तुम भूल पाने की शै नहीं हो।

सितंबर के नाम पर सिर्फ दो सितंबर साल दो हजार तीन याद आता है। एक-एक लम्हा, जैसे कल ही की बात हो। पहले केलोंग, दार्चा फिर लेह...रात का तीसरा पहर है। कुछ अजनबी आवाजें कमरे में पसरे सन्नाटे को तोड़ रही हैं...मेरी रातों और नींद के रिश्ते में दरार आए कयामत का वक्त बीत चुका है। वो 19जून की रात थी जब मैं गाड़ी से घर तक का सफर तय करने के लिए निकला था...ज़हन हमेशा की तरह मसरूफ था कई बेमकसद ख्यालों में...बेवजह की बातों में...जब भी मोटरसाइकिल राइड पर निकलता हूं तो लगता है तुम पीछे बैठी ऊंघ रही हो...मेरी पीठ से अपना सिर टिकाए। तेज रफ्तार में तमाम ख्यालों को खुद में गुनता-बुनता अचानक मैं किसी अधबुझी रोशनी में डूब जाता हूं...किसी तेज चीख के बाद उतरी नीम बेहोशी में कई सारी हलचलें, भाग-दौड़ सुनने का आभास होता है...वो बस परछाईयां हैं जैसे। अचानक ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरी आवाज छीन ली...मैं चाहकर भी कुछ बोल नहीं पा रहा...हिलने की कोशिश करता हूं मगर हाथ-पैरों में हरकत नहीं होती...थोड़ी देर तक समझने की कोशिश करता हूं मगर ज़हन साथ नहीं देता...हथियार डाल देता हूं...अब सांस भी नहीं आ रही, जैसे ऑक्सीजन खतम हो गयी दुनिया से...सुबकने जैसा एक अहसास तारी होता है।

आंख खोलता हूं तो सामने सफेद रंग की दीवारों पर हरे पर्दे दिखाई देते हैं...नाक अस्पताल की जानी पहचानी एनिस्थिसिया की गंध में डूबी हुई है...आभास धीरे-धीरे होश के अहसास में तब्दील होता है...सामने कार्तिक खड़ा है। मेरा राइडर दोस्त...पहले उसके लंबे भारी शरीर में होती हलचल धुंधली सी दिखती है...वो हाथ हिला रहा है...मैं पानी मांगना चाहता हूं पर मुंह बंद है। जीभ और दांतों का अहसास मुंह में कहीं नहीं होता...शायद मेरी आंखों में उभरे सवाल को भांपकर वो कहता है..."चिंता मत कर..तू ठीक है। दो दिन पहले तेरा एक्सीडेंट हो गया था एक्सप्रेसवे पर...ये कैलाश है...आईसीयू...मैं?...कार्तिक..."

मैं आंखें बंद कर लेता हूं।

याद करने के सिलसिले में याद आता है कि कंप्यूटर के एक फोल्डर में तुम्हें तीन अगस्त दो हजार तीन को भेजा एक टेक्स्टमैसेज पड़ा है- मैं उसे फिर से खोलकर देखता हूं। दो हजार दो के कई हैं...अगस्त दो हजार तीन का सिर्फ एक...तीन अगस्त की सुबह मैं कहता हूं- देहरादून जा रहा हूं, एक शूट के सिलसिले में। तुमसे मिलने की, तुम्हें देखने की इच्छा थी, पता नहीं कब पूरी होगी। हमारी तमाम ख्वाहिशों पर बेरहम दुनिया की रिवायतों के गुलाम जिन्नों की हुकूमत चलती है। और मेरे पास कोई जादुई चिराग नहीं था।  ये वो दौर था जब तुमसे मैंने तुम्हें पाने का दुबारा वादा किया था...सच कहूं, वो छलावा नहीं था।
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मेरी शराब जाने कौन पी लेता है रात गए...सिर्फ आधी बोतल रह गयी है अब। आधी भी कहां...
एक्सीडेंट को गुजरे बहत्तर रातें बीत चुकी हैं...और सोए हुए भी। करीब दो हफ्ते तक ड्रग्ड था इसलिए होश भी नहीं...लेकिन उसके बाद छाए अंधेरे ने जैसे नींद की थपकियां कहीं छुपा दी हैं। इस दौरान सिर्फ तुम ही तुम होती हो...

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हां उसे कुछ ज्यादा नहीं सोचना चाहिए।
कि तमाम कोशिशें कर लेने के बाद
मन भी हो जाता है अभ्यस्त
एक खास रंग के धुएं में लिपटे,
निर्जन का।
एकाकीपन का।

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कई रातों के अनगिन पहर बीत चुके हैं...इन तमाम रातों में अनेक पहरों में से कई के खून तो सिर्फ इस बात पर कर दिए कि तुम्हें कुछ लिख पाने की हिम्मत बाकी नहीं थी...फिर कुछ पुराने खतों का सहारा लिया और जैसे तुम बगल की करवट पर आ बैठी..."सो जाओ, रात जा रही है।" मेरे सीने में बाएं तरफ की रिब्स में फ्रैक्चर है और चेहरे के दाएं तरफ की जॉलाइन में...कुल सात। मैं करवट नहीं ले पाता, इसीलिए तुम दिखाई नहीं देती। तुम्हें चिट्ठी लिखता हूं और जैसे एक वादा तोड़ता हूं...कि कभी मुझसे कॉन्टैक्ट मत करना...इतना तो करना। बेसबब कोई उलझता है भला कब किससे...कभी अचानक अकेले बैठे...या फिर लोगों के बीच भी, बेसबब आंसूं निकल पड़ते हैं...हंसी फूट पड़ती है...याद करता हूं कि कुछ भी तो नहीं है, कहीं...दूर दूर तक।

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जब अकेले हों आप और सूनसान हो आकाश
रात हो काली और
उसकी याद...गिरेबान थामे खड़ी हो।
आसान नहीं होता तब
माज़ी को एकतरफा इल्ज़ामों की पुरानी शराब में
डुबो देना.
तुम्हारी याद से अपना गिरेबान छुड़ा लेना

--

हर शाम टहलने के लिए निकलता हूं तो देखता हूं कि एक कुत्ता अक्सर इंतजार करता रहता है मेरी ही कार के नीचे बैठकर रोज मेरे आने का। जिसे मैं कुछ भी नहीं देता सिवाय प्यार से उसकी आंखों में देखने और उसके सिर पर थोड़ी देर के लिए हाथ फेरने के...  शायद उसे अहसास हो कि मेरा प्यार नुमाइश की चीज नहीं। तुम्हें लिखते हुए सोचता हूं कि देखो तो, तुम्हारे लिए ये पूरी चिट्ठी ही बेकार की है ना, बेमकसद, बेसबब।

तुम्हारी कुछ तस्वीरों पर काम किया पिछले दिनों, फुरसत से। वो अनोखी बन गयी हैं तुम्हारी तरह, बेजोड़ सुंदर। अगर तुम हां कहो तो नए दफ्तर के पते पर कुरियर कर दूं। लिफाफे पर सेंडर की जगह खाली होगी चाहो तो, वहां कोई नाम नहीं होगा...पिछली बातें याद कर सिर्फ तकलीफ नहीं होती, सुन्नता आ जाती है और थोड़ी देर के लिए सब ठहर जाता है। गुजरा वक्त एक सदमा है।
दो महीने से ज्यादा बीत चुका है. फ्रैक्चर दुरुस्त करने के मकसद से मेरा मुह बंद कर दिया गया है... मेरे दांत वायर्ड हैं। मैं जबड़े हिला नहीं सकता। ठीक तरह से बोल नहीं सकता। खाना भी नहीं खा सकता। इन उलझनों के बीच नींद का झगड़ा न्यूरो के पास पहुंच गया...मैंने उससे पूछा कि मुझे इतनी सज़ा क्यों...आखिर मैं सो क्यों नहीं पाता रात भर...उसने जवाब दिया कि रात ने डस लिया है आपको। अंधेरी रात का एक्सीडेंट एक ट्रॉमा है...जिससे आप तब तक नहीं उबरेंगे जब तक लोगों से मिलें-जुलें ना...कुछ ऐसा क्यों नहीं करते जो आपको बेहद पसंद हो...जिससे आप प्यार करते हों। ये आपकी मदद करे शायद...इस चिट्ठी में स्वार्थ नहीं है, ये तो हर साल 2 सितंबर को निभाई जाने वाली इबादत की रस्म है, पिछले नौ सालों की तरह। तुम्हें याद करते रहने का दशक पूरा करता हूं, जाने किसलिए। हमेशा की तरह...जाने किसलिए। जवाब कभी नहीं आता, फिर भी मैं ये सब लिख रहा हूं...जाने किसलिए।

ये हर रात...कौन चुरा रहा है...मेरी जिंदगी की शराब। कहीं से कोई ले आए जादुई शब्द जो कम कर दें दर्द...तन का...मन का।
नहीं। कुछ नहीं हो सकता।

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सुबह से लेकर शाम तक, लगाता रहता है वो
पुराने मंदिर के चक्कर
कभी घंटो बैठा रहता है, सूरजमुखी के खेत में...
इतनी देर से, जाने क्या टटोल रहा हूं मैं
जाने क्या खो गया है..

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Image courtesy- Stephen kellog

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

इतर* की बोतल, अहसासों की खुशबू



कुछ भी अलग नहीं है और नया भी नहीं। कुछ अलग और नया हो सकता है, इसकी उम्मीद सच नहीं। उम्मीद तो बस उम्मीद होती है, एक और शय। जैसे निराश हो जाना। ये याद रहता है कि कहीं कुछ नहीं बदलेगा, लेकिन फिर भी नाउम्मीद होना अच्छा नहीं होता। भरोसा टूटने से भ्रम का बना रहना अच्छा।
बीफोर यू अचीव इट, यू मस्ट बिलीव इट...फिर चाहे वो भ्रम ही क्यों ना हो, है ना? फिर इस भ्रम का इतर*, तुम्हारे होने की खुशबू से कहां कम है...
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काश मैं बांध पाता खुशबुएं भी
तुम्हारी,
जो कैद हैं कहीं आरजुओं की
पुरानी दीवारों में...
फ्रेम कर पाता उनको,
और टांगता कुछ गैरहासिल
तमन्नाओं के ड्राइंग रुम में,
तुम्हारी ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर की तरह।


कभी रास्तों पर चलते हुए
कभी यूं ही अचानक पुरानी डायरी के पन्ने पलटते
कभी आलमारी से उलझते
तुम्हारी दी हुई ब्लू शर्ट की तहों में
उपन्यास के पहले पन्ने पर टटोलते हुए
तुम्हारे लिखे, मेरे नाम के अक्षर...


देर शाम खोलता हूं वो डिओडरंट की गुलाबी शीशी,
और बेसिन पर अबतक वैसी ही रखी
फेसवॉश की सफेद ट्यूब को देर तक सूंघते हुए,
अचानक मुकम्मल हो जाता है इश्क
तुम बाथरूम का दरवाजा पीटती हुई पूछती हो
दफ़्तर नहीं जाना क्या?


वो पूछता है भीड़ भरे चौराहे पर बैठे
पंडित जी के तोते से,
क्यों चली गयी तुम...
और काटता है चक्कर पुरानी मस्जिद वाले वाइज के,
लिखकर मिटा देता है, ख्वाहिशें, आरजुएं, तमन्नाएं.
कि सब अंधे और बहरे हैं।


और अचानक खुशबुओं के जाल में
कैद हो जाते हैं उसके दिन-रात
कई हफ्तों तक नहीं रहता ख्याल
भीड़ के वजूद का, अपने होने का,
सोचता हूं,
तुमसे सुंदर तो सिर्फ मृत्यु होगी...शायद।


हां, ये भी शायद।



*इतर- इत्र
Image courtesy- Lena carpinsky, .artbylena.com

शनिवार, 18 अगस्त 2012

कुछ...





इनायत को तरसतीं कुछ तस्वीरें. जज़्ब होने को बेकरार कुछ अल्फ़ाज़.  रात के तीसरे पहर बरस रहा है कुछ...रात की चुप्पी के साथ।
चुप रहो तुम...ये कुछ क्या होता है? हुंह!


--
इंतजार की सुबहें मुसलसल* चलती रहती हैं
और सारी दुपहरी अकेला बैठा वो
खाली पड़ी इनबॉक्स छानता रहता है
इंतजार...
खालीपन...
उदासी...
कि शामें नहीं बुझतीं,
और बिस्तर पर औंधी पड़ी रात पूछती है
तुम्हें किसका इंतजार है...

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जब अकेले हों आप और सूनसान हो आकाश
रात हो काली और
उसकी याद...गिरेबान थामे खड़ी हो।
आसान नहीं होता तब
माज़ी* को एकतरफा इल्ज़ामों की पुरानी शराब में
डुबो देना.
तुम्हारी याद से अपना गिरेबान छुड़ा लेना

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तुम्हारे लिखे आखिरी खत की राह देखते
काट दी उसने उम्र सारी
उसके हिस्से इंतज़ार की चुप्पी आई
और तुम्हारे हिस्से दुनिया सारी
..छोड़ो भी,
इन बेतुकी तुकबंदियों की राह देखने में रखा क्या है

--

किसने कहा था ये कानों में आकर
कि नहीं हो सकता
इश्क का उद्यापन
देखो ना तुम्हारे दरवाजे पर उगता सूरज
चटख पीले फूल पर चमकती ओस
और हरी-हरी वादियां..
अब नहीं दिलातीं तुम्हे मेरी याद

--

सुबह से लेकर शाम तक
लगाता रहता है वो
पुराने मंदिर के चक्कर
कभी घंटो बैठा रहता है
सूरजमुखी के खेत में...
इतनी देर से,
जाने क्या टटोल रहा हूं मैं
जाने क्या खो गया है

--

मोहब्बतों के शहर पुराने हो जाते हैं
इमारतें जर्जर
मकान सूनसान
और चेहरे बेनूर
फिर भी चमक नहीं जाती
यादों के कैनवस पर काले-सफेद रंग में चिपके,
तुम्हारे चेहरे की...
शोर है कि ये इश्क की चुप्पी नहीं, इबादत की खामोशी है।

--



*1- continuous, ceaseless
*2- past life

Image courtesy- An artwork by Leonid Afremov, a Belarusian painter.

सोमवार, 13 अगस्त 2012

संबोधन!




छीन लेता है वो
शब्द और अर्थ..
भाव और संबोधन।
--
संबोधनों की अंतहीन यात्रा में
कुछ संबोधन,
...चुने गए थे,
कुछ में गढ़े गए थे भाव,
कुछ में प्रकट किए थे श्रद्धा और सम्मान...
समय के बूढ़े बरगद ने।
--
पर छीन लिए उन लोगों ने शब्द
चुरा लिए अर्थ...
और संबोधनों का,
संसद, सड़क, मैदान और चौराहों पर किया बलात्कार।
--
तिक्त हुए तिरस्कृत संबोधनों के अपराधियों को
संबोधित करता है बूढ़ा बरगद
पूछता है,
क्यों ठगा तुमने शब्दों को, क्यों लूटे अर्थ...
अब तुम्हारी संतानें
बाबा किसे कहेंगी...
ठगों को, नक्कालों को, भगवा रंग में रंगे सियारों को।
--
यार, लोग ये रामदेव को बाबा क्यों लिखते हैं? रामदेव तो रामदेव है ना.



Image- (c)vivekshukla05@gmail.com

बुधवार, 8 अगस्त 2012

अफसोस




चित्रलेखा को पढ़ते हुए एक अनसुलझा उम्रदराज सवाल फिर से फन उठा लेता है कि प्रेम क्या है। क्या कोई पाप और पुण्य से परे जाकर इसकी ठीक-ठीक परिभाषा गढ़ पाएगा कभी। प्यार करते हुए भी गुलज़ार का चंदन चला गया और इतनी दूर चला गया कि वहां तक सुधा की आवाज़ भी नहीं पहुंच सकती थी। चित्रलेखा बीजगुप्त से दूर जाती हुई तस्दीक करती है आत्मा अमर होगी पर प्रेम नहीं। अमर तो वो होता है जिसका जन्म ही नहीं हुआ, भला मौत उसकी झोली में क्या पाएगी। पर प्रेम तो जन्म लेता है...मरता है या नहीं, इस पर अब तक ठीक ठीक मेरी राय नहीं बन पायी है। शायद मरता है, शायद नहीं। कभी कभी मर भी जाता है।

हां, अफसोस की उम्र जरूर होती है...

--

एक उम्र के बाद खत्म हो जाता है अफसोस
उन ख्वाहिशों के साथ ही,
जिनकी उम्र,
तुम्हारी याद जितनी ही थी.
और याद...
मेरी हमउम्र.

एक उम्र के बाद नहीं बचती उम्र अफसोस की
तब नहीं मतलब रखती ये बात
कि नहीं हूं मैं उसके पहलू में,
या कि गिर गए उम्र की बसंत से
तमाम हरे पत्ते.
कट गया वक्त,
तुम्हारे साथ.

नहीं होता एक उम्र के बाद अफसोस
ये देखकर कि,
तुम्हारे बिना बेकार ही
वक्त की दीवार पर चॉक से लिखता-मिटाता रहा तुम्हारा नाम.
तुम्हारे इंतज़ार की रोशनी में.
नहीं लौटी तुम और छलांगे मारकर
ओझल हो गया मेरा वक्त.
जिसके सिर पर कई दिनों तक थे मेरे कदमों के निशान.

नहीं रहा अफसोस कि अपने हिस्से के
गहरे अंधेरे में
छायी रहती है कभी ना खत्म होने वाली उदासी और चुप्पी
नहीं पंख मारता कभी कोई अनचीन्हा कबूतर
और छत पर,
तुम्हारी लक-दक करती दुनिया में
नहीं होती कभी रात.

रीत जाता है अफसोस कि एक दिन
ढल जाता है हमेशा के लिए दिन
उड़ जाते हैं पक्षी कभी ना लौटने के लिए,
और मिल जाता है सब,
इसी मिट्टी में।



Image courtesy- http://img.ehowcdn.com

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

बारिशें...




सूखे पड़े बरामदे को याद है अब भी,
गई बारिशें।
जब तुम हाथ थामे मेरा,
और रखे कंधे पर सर,
देर तक बैठी निहारती रही थी,
बारिशें।
बरसते मेघों में
भीग रहीं थी हसरतें भी।

इश्किया मकान की उम्र बस साल भर की निकली।
इस साल बदरा रुठे हैं जैसे
दुनिया में बरसा है हाहाकार, सूखे का साल।
मगर, बेबस मन के कच्चे मकान की
तपती खपरैल से
टपक रही है तुम्हारी याद..
बूंद-बूंद.
रिस रिस कर रीतता है,
रस,
जीजिविषा का।
--






जीजिविषा- Strong wish to live on.
Image courtesey- fineartamerica.com

बुधवार, 1 अगस्त 2012

अंत नहीं है...





कहीं गहरे में अंतस के...
उभरता है एक भाव, घृणा का, वितृष्णा, घोर पश्चाताप और पछतावे का...
आखिर क्यूँ इतना विवश हूँ मैं!
गयी कुल चालीस रातें हो चुकी हैं नींद का मुह देखे,
ऊंघ पाया हूँ कभी दिन में..थोड़ी देर के लिए...
अब कहीं कुछ ख़ुशी नहीं दिखती,
कोई गिटार नहीं बजता,

कहीं कुछ रंगीन, चमकीला, सुन्दर नहीं दिखता...
धूम्र वलय का हिस्सा सब लगता, 
इस कुहरे का नहीं होता ओर-छोर...
जैसे अंत नहीं दिखता दुःख का, अशांति का, बेचैनी का...
दिन-दिन गहराते पछतावों का...!
पर ठहरो,
है सहेजता कहीं मुझे, तुम्हारा यह कह जाना धीरे से कानों में,
अंत नहीं है..आसमान का, चटख रंगों का, चमकीली रोशनी और ऊंचाइयों का,
जिन्हें छूने को हर रात,
बिलखती है आत्मा तुम्हारी,
जिस विलाप के शोर में,
नहीं सुन पाते तुम कुछ और...कभी...
अंत नहीं है ऊंचाइयों का...


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मंगलवार, 31 जनवरी 2012

...तुम्हारे जाने के बाद





 
आज अचानक आत्मस्वीकृति के एक क्षण में मैं सोचता हूं कि क्या इस समाज के तमाम नैतिक और उपयोगितावादी मानदंडों के लिहाज से मैं एकदम आवारा और बेकार इंसान नहीं हूं...थोड़ी देर में एक अलसायी मादक आवाज में उत्तर आता है...हां हो...लेकिन मेरे लिए नहीं...
इस आवाज की शक्ल नहीं दिखती।
भीड़ की उदासी और एकांत घने जंगल की तरह सीमाहीन और डरावना है...उदासी के पंखों की उड़ान भी मन को नहीं भाती। कभी कभी कोई ख्याल मुझे इस उदासी के इस जंगल से हाईजैक कर ले जाता है...आमतौर पर वो या तो तुमसे जुड़ा होता है या मैं उसे तुमसे जोड़ना चाहता हूं। लेकिन इन दोनों में से किसी भी स्थिति के मुकम्मल ना हो पाने पर लिसलिसा, गीला, काला और भयावह...अकेलेपन का जंगल मुझे दबोच लेता है। जब भी तुम्हारे सोहबत का सुख पाने की मेरी उम्मीदें टूटती हैं, मैं दूसरों के लिए हिंसक, तुम्हारे लिए निष्क्रिय और खुद के लिए नकारात्मक हो जाता हूं। तुम कई बार कहती हो, तुम जो ध्यान करते थे, उसे अब क्यों नहीं करते...पढ़ते क्यों नहीं, या जो तुम्हें अच्छा लगता है, लिखना...लिखते क्यों नहीं.
यूं तुमसे बचने को आश्वासनों का जाल भले बुन देता हूं पर नहीं लिख पाता। विचार बनते हैं, और बिखर जाते हैं। मैं जानता हूं लगातार लिखने से व्यक्ति अच्छा लिखने लगता है। फिर मेरी संवेदनाओं की गीली मिट्टी में अल्फ़ाजों की शक्ल कई लोगों को जानी-पहचानी लगने लगती है, लोग आमतौर पर उससे प्यार करने लगते हैं...ये मुझे अच्छा भी लगता है...लेकिन इतना नहीं कि इसके लिए मैं रोज लिखने ही बैठ जाऊं...मुझे अकेलेपन के इस अवसाद से प्यार हो गया है...अलसाया हुआ अवसाद।
इस सवाल के जवाब में कई सारे ठोस जवाबों की श्रृंखला बन जाती है कि मैं तुमसे प्यार क्यों करता हूं। लेकिन मैं सोच रहा हूं कि तुम मुझे प्यार क्यों करती हो...ऐसा पहले भी कई बार सोच चुका हूं। लेकिन आज तक कभी कोई ठोस जवाब नहीं मिलता। अचानक लगता है कि मेरी सारी क्रियाएं अपने जीवन का व्यर्थ विस्तार सिमटते हुए देखने के आसपास संकुचित या फैली हुई हैं। मैं क्या ऐसा कर पाऊंगा जिससे किसी के जीवन के इस बने-बनाए क्रम में कोई बदलाव ला सकूं, कोई सुख पैदा कर सकूं...तुम्हारी-मेरी बदलाव लाने की ख्वाहिशें, दरअसल तो इसी कवायद का हिस्सा हैं ना कि खुद का नाम इतिहास की स्मृतियों के दस्तावेजों में हमेशा हमेशा के लिए सुरक्षित रह जाए...मेरे मन में अक्षय यश की ये कामना धुंधली हो चुकी है।
हां,  मैं जिंदगी की कुछ चीजों को अब भी सलीके से रखना चाहता हूं, लेकिन वो नितांत निजी है। निजी माने उनका होना ना होना मैं अपने जरिए ही चाहता हूं। क्या ऐसे हो जाने में और तुम्हारी तरह महात्वाकांक्षा के अरण्यों में तपस्या कर कुछ महान रचना करने में कोई बड़ा अंतर है...समय की गर्द से कोई कुछ साल आगे तक ही तो बच सकता है, नष्ट तो सभी को होना है। लेकिन सवाल सिर्फ ये नहीं है। जीवन का मौजूदा हिस्सा, विरोधाभासों की कुंडली मारे सांप की तरह मुझे घूरता रहता है, ज़रा बचने की कोशिश पर सारा ज़हर जिस्म में उतार देने की फुंफकार करता मेरे सीने पर बैठा रहता है...उसका फन मैं अपनी दो आंखों के ठीक बीचोंबीच महसूस करता हूं।
जाने ये किस खालीपन को भरने का जुनून है कि जनम-मरण के इस चक्कर से मुक्ति नहीं मिलती...फिर फिर जन्मता हूं...फिर फिर मरने के लिए...मैं किस प्रेम का भूखा हूं कि किसी की परिपाटियों पर ठीकठाक बैठ नहीं पाता...क्या तुम्हारी दरांती से संवरेगी मेरे मन की ये बेडौल कुंदा...
इन्हीं विरोधाभासी सवालों की जकड़न में जब दम घुटने लगता है तो तुम्हारी याद आती है...ऐसे, कि शायद किसी मरते हुए को जिंदगी याद आए...एक आह उठती है, तुम्हारा नर्म, नाजुक बदन याद आता है....आंखों के आगे धुंधलका छाने लगता है...चीड़ की गीली लकड़ियों का हवन...सुलगने लगता है...इश्क की खुशबू की मदहोशी में मैं फिर जिंदा हो उठता हूं...
तुम्हारी विलक्षणता तुम्हें सदियों तक जिंदा रखेगी...लेकिन मैं...
मेरा कोई उपयोग नहीं है!!


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Image courtesy- talyajohnson dot com

परछाईयां

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