पहला हस्ताक्षर...

कुछ-कुछ पहले जैसा...

शनिवार, 26 नवंबर 2011

वो गैरवाजिब, गैरजरूरी...लेकिन फिर भी...मौजूद तो है।




कुछ उनकी, जिन्हें पढ़ते, सुनते ज़हन की शाखों ने लोच खाना सीखा...

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वो जो शायर था चुप-सा रहता था
बहकी-बहकी-सी बातें करता था
आँखें कानों पे रख के सुनता था गूँगी खामोशियों की आवाज़ें!

जमा करता था चाँद के साए
और गीली- सी नूर की बूँदें
रूखे-रूखे- से रात के पत्ते
ओक में भर के खरखराता था
 

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वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था

हाँ वही, वो अजीब- सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चाँद की ठोड़ी चूमा करता था
चाँद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है...

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Poetry of Gulzar.
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Image courtesy- artofamerica dot com

गुरुवार, 17 नवंबर 2011

भ्रम भंग...



तुम तब तक मेरा हिस्सा थी
मेरे ही अंतस का,
उठते-बैठते साथ रहा करती थी
मेरी होकर..
मुझमें ही रहती थी

साथ खाना, साथ पीना
सोना साथ
सपने भी देखना साथ...और बांटना सुबह उठकर उनको
बड़ा बुरा सपना देखा आज
तुम हाथ छुड़ाकर चली गयी हो..
और तुम्हारा हंसकर कहना
मेरे ही अंदर से,
ये तो अच्छा है...कहते हैं सपने में जाने वाले साथ रहा करते हैं

साथ थी तुम, जब तक तुम्हें अभिव्यक्त नहीं किया था मैंने
जब तक तुम्हें शक्ल नहीं दी थी
शब्दों में बुना नहीं था...
अल्फाजों में चुना नहीं था...
मन से बाहर लाकर, तन में गुना नहीं था...
अब तुम बाहर हो,
डायरी में लिखी मेरी किसी कविता की तरह...
बिस्तर पर बेजान पड़ी हो...

हां, तुम्हारे होने की तरह,
भ्रम था, झूठ था ये सपनों का बूझना वो..
क्योंकि सपने में जाने वाले,
कई बार,
सचमुच चले जाया करते हैं...


Image courtesy- greeningsamandavery dot typepad dot com

बुधवार, 16 नवंबर 2011

कभी तो आएगा क़रार, खुद के अंधेरे में दफ़न, इस रूह को मेरी...




कि कुछ इंतज़ार कभी खत्म नहीं होते, उम्मीद फिर भी भागकर जाती है दरवाजे तक हर कॉलबेल पर। सरसरी निगाह से देखती है ब्लिंक करती सेलफोन की स्क्रीन। यूं जिंदगी की मसरूफियत कम नहीं होती, कि तमाम और मसलात हैं सुबह को शाम से जोड़ने के लिए, मगर तुम्हारी कमी ने हर शै भर रखी है जैसे, अपनी मौजूदगी से। तुम जाहिर भी हो और गायब भी। तो आओ दुआ करें, कि कभी तो आएगा क़रार...


(1)
मन्नतों की बुनियाद पर खड़ी,
बेपनाह ख्वाहिशों की ये जिंदगी
तुमने दी है...।
तुम, जो बेतरह खूबसूरत हो
और मजबूत भी।
इस दुनिया के जुल्म-ओ-सितम,
बर्दाश्त करने के लिए ही नहीं,
उसे अपने पैरों की ठोकर पर रखने लायक भी...
तुम्हारे ही तो दिए हुए हैं हौसले ये,
फासले ये।
तुम्हारी ही तो दी हुई है जिंदगी ये...
जो भी है,
जैसी है
खूबसूरत है...



(2)
तुमने जो कुछ भी कहा उस दिन...
ज़ख्मों-खराशों की तरह कायम है।
लेकिन दिल को तकलीफ नहीं देता..
क्योंकि
वो हक था तुम्हारा।
हां, अगर कुछ ज़ख्म से नासूर बन गया है,
तो वो है
तुम्हारी आखिरी आवाज...
जो रात भर गूंजती रही कानों में उस रोज
डू यू वांट मी, ऑर नॉट?
ये सवाल था,
आरजू थी,
या धमकीभरे लहजे में मांगा था कुछ तुमने...
ठीक-ठीक याद नहीं।
ये भी नहीं याद कि क्या जवाब दिया था मैंने...
क्योंकि तुम्हारे इस सवाल के बाद ही
खो गया था अपने अंदर छाए अंधेरे में कहीं,
गुमनाम अंधेरा,
जिसमें कुछ साफ नहीं नजर आता...
मैं क्या हूं, क्या करना चाहता हूं, क्या कर पाऊंगा।
शायद...ऐसे ही किसी मोड़ पर उस गुमनाम अंधेरे से
निकलेगी एक शक्ल
मौत की।
लेकिन उससे पहले,
बताना चाहता हूं, कि कोई ठीक-ठीक जवाब क्यों नहीं दे पाया मैं...
दरअसल,
तुम्हारी सवालिया आवाज को सुनते ही,
मेरे अंतर से निकला था जवाब...
जो तुम तक पहुंचने से पहले ही,
खो गया कहीं,
जेहन की पेंचदार नसों में छाए
उसी गुमनाम अंधेरे में...
गोया कि जवाब, सिर्फ जवाब नहीं था,
एक जिम्मेदारी थी...




(3)
तुम्हारी आवाज अब भी गूंज रही है कानों में,
और उसके पीछे भागता हूं मैं
उसे पकड़ कर अपने गले से लगा लेने की
कोशिश में,
लेकिन सिगरेट से उड़े
धुएं के छल्ले की तरह...
वो दूर कहीं गुम हो जाती है...मेरे जवाब की तलाश में।
एक अफसोस सा चटकता है जेहन में
और चुभ जाते हैं टुकड़े उसके
पूरे जिस्म में मेरे,
लेकिन खून नहीं निकलता...
क्योंकि आंसुओं के साथ ही
अब सूख चुका है लहू भी मेरा!



(4)
तुम्हें याद तो होगा,
मेन सड़क के किनारे, चीड़ के पेड़ों की दबंग चॉल से
थोड़ा बाएं होते हुए
करीब पचास फीट नीचे,
बांसों की वो बसाहट...
सुलगते इश्क के हवन की वो भीनी खुशबू ,
जिंदगी उसी बैंबू कॉटेज में कैद होकर रह गयी है
जिसमें तुम्हारे साथ आखिरी रात बितायी थी मैंने,
वो आखिरी रात
जिसमें जिंदा था मैं...


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 Image courtesy- mymodernmet dot com

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

कफ़स



इस कैनवस पर कुछ रंग हैं वादों के, कुछ स्याह बिखरा है उम्मीदों के टूटने का, वक्त की कई कई पुरानी परतें हैं जिनमें से हर एक की दास्तान है अपनी...वादों की, इरादों की, सपनों की, तामीलों की, जुड़ने और बिखरने की, मिल जाने और कभी ना बिछुड़ पाने की।


 ए कुछ साल पहले,
तुमने उम्मीदों का,
जो चराग़ जलाया था.
आने वाले कल के कैनवस पर,
हमारी, अपनी साझा ज़िंदगी का,
जो कोलाज बनाया था,
वो कैनवस,
कफ़स बन गया है अब..

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और झुलस गयी हैं उंगलियां मेरी,
हवाओं से हिफ़ाज़त करते,
तुम्हारी,
उम्मीदों के चराग़ की.

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ऐसा नहीं कि उम्मीदें चटक गयीं मेरी
या पस्त हो गया हो हौसला,
पर तुम ही कहो ना,
आखिर,
हवाओं पर आशियाने बनाने का
तुम्हारा ख़्वाब,
मेरी आंखें कब तक देखें...

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Image courtesy- bigalsartgallery dot com

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

अंधा युग





धृतराष्ट्र तो अंधा था ना, नहीं देख सकता था बाहर का यथार्थ कुछ भी। कुछ ग्राह्य नहीं था उसे, जो उनको था जो देख सकते थे आंखों से अपनी। द्रोण, भीष्म के क्रोध की आंखें भी थीं और वो सक्षम भी था...फिर उन्होंने नहीं रोका क्यों दुर्योधन को...कौरवों को। जिस मर्यादा के चीरहरण ने नाश कर दिया एक वंश का...एक राज्य का...एक कालखंड का। अंधा युग यूं तो आख्यान है मर्यादा के आचरण का ही लेकिन क्या सत्य नहीं कि सबकुछ पहले से तय है...झूठ हो या सच, दोनों दास हैं नियति के...


यदि झूठ बदलता रहता है, चेहरे, वस्त्र और चाल...
तो सच का भी
यथार्थत:
कहां होता है कोई चरित्र?

दरअसल, सच तो बस बैल हो जाने में है
आचरण करने में,
क्योंकि कृष्ण ने आदेश दिया है
आचरण में ही तुम्हारे मनुष्य होने की सार्थकता है
तुम्हारी नियति बनेंगे
आज किए गए
तुम्हारे कर्म...
वही युगों-युगों तक बनेंगे
तुम्हारा भाग्य...
अर्जुन बैल बन गया
और एक युग छला गया कृष्ण के हाथों...

तुम भी,
पक्ष लो सत्य का
या असत्य का...आचरण या निष्क्रियता का...
छले जाओगे...

दुख के अंडे



 
इन दिनों,
अपने दुखों को से रहा हूं,
से'ना तो समझते होंगे आप,
वही जो बतख करती है,
अपने अंडों के साथ,
घंटों बैठी रहती है उन पर,
अंडों में जिंदगी की,
आंच पैदा करने के लिए..
सेंकती है अपनी
जीवन-ऊर्जा से उनको...
इस सेने में ही शामिल होता है,
बतख का जीवन,
लगाव,
और करती है अपनी सुखद स्मृतियों का निर्माण वो,


ऐसे ही मैं भी से रहा हूं
सालों के सहेजे,
दुख अपने,
सेंक रहा हूं उनको
अपने ताप से,
देखना है,
जब इन दुखों के अंडे फूटते हैं,
तो,
उनमें से निकले बच्चों की
शक्ल,
किससे मिलती है...


Image courtesy- quail eggs oil painting dot com

क्यों बरस रही हो...बेमौसम?






जाने इस बारिश से कैसा नाता है...बिन पूछे, बिन बताए चली आती है...कभी आंखों में...कभी बरामदे में..चाहे मौसम भी हो या नहीं। पूछूं तो कहती है...किसी की याद में आंखे भर आने और खुश से आंखे भर जाने का भी कोई मुहूर्त होता है भला...

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आंखें जल रही थीं
सुबह से ही आज,
गला भी रुंधा है जैसे,
जाने क्या, जाने कहां अटका है...
तुम्हारी गहराती यादों की धुंधलकी खोह में,
ढूंढ़ने से नहीं मिलता...
कोई सिरा...तुम्हारी छुअन का कोई एहसास..
उस पर ये बारिश...

एक चमकीले पीले फूल की तरह,
अभी-अभी शुरु हुआ था दिन
और बिना बात की, नवंबर की ये बारिश...?


जैसे फिर नाराज हो गयी तुम,
और सोच रहा हूं, अभी तो ठीक था सबकुछ..
फिर अचानक?
धीरे-धीरे इस बारिश में मिल गयी है जैसे...
नमी मेरे अंतस की...फैलकर
और बरसने लगी है बेबस आंखों की तरह,
जिनका दुख किसी ने जबरन बांध रखा है,
दिनों-महीनों-सालों से...
क्या कभी दुख की शक्ल,
बादलों से मिलती-जुलती है?

बरामदे से देखता
इस दुख की शक्ल पहचानने की
कोशिश कर रहा हूं मैं...
नया ही कोई रचा है मैंने,
या पिछली बारिशों का ही कोई टुकड़ा है
जो मेरी आंखों की पोरों में,
अटका रह गया था कहीं,
चुभ रहा था अब तक..
और खुल कर बरस रहा है अब.

यूं बरामदे से,
शक्ल ना बादल की दिखती है
ना अब बारिश का चेहरा ही तुमसे मिलता है
पर ये दुख...
बारिश के साथ बरसती ये चुभन,
छाती में कसकती ये जलन...
जानी पहचानी लगती है।
ना जाने किससे,
पर,
इस दुख की शक्ल,
किसी से तो मिलती-जुलती है...

परछाईयां

...