पहला हस्ताक्षर...

कुछ-कुछ पहले जैसा...

गुरुवार, 17 नवंबर 2011

भ्रम भंग...



तुम तब तक मेरा हिस्सा थी
मेरे ही अंतस का,
उठते-बैठते साथ रहा करती थी
मेरी होकर..
मुझमें ही रहती थी

साथ खाना, साथ पीना
सोना साथ
सपने भी देखना साथ...और बांटना सुबह उठकर उनको
बड़ा बुरा सपना देखा आज
तुम हाथ छुड़ाकर चली गयी हो..
और तुम्हारा हंसकर कहना
मेरे ही अंदर से,
ये तो अच्छा है...कहते हैं सपने में जाने वाले साथ रहा करते हैं

साथ थी तुम, जब तक तुम्हें अभिव्यक्त नहीं किया था मैंने
जब तक तुम्हें शक्ल नहीं दी थी
शब्दों में बुना नहीं था...
अल्फाजों में चुना नहीं था...
मन से बाहर लाकर, तन में गुना नहीं था...
अब तुम बाहर हो,
डायरी में लिखी मेरी किसी कविता की तरह...
बिस्तर पर बेजान पड़ी हो...

हां, तुम्हारे होने की तरह,
भ्रम था, झूठ था ये सपनों का बूझना वो..
क्योंकि सपने में जाने वाले,
कई बार,
सचमुच चले जाया करते हैं...


Image courtesy- greeningsamandavery dot typepad dot com

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सपनों का होता सच और झुठला़या झूठ, दोनों ही आश्चर्य में डालते हैं।

परछाईयां

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