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बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

                       प्रेम का शोकगीत



दिल्ली शहर में फरवरी की आधी रात मेरे घर की आधी रात से अलग है। अंतहीन शोर की जगह छत्तीसगढ़ के इन जंगलों में सन्नाटा है, झींगुरों की आवाजें हैं, और हवा में जाती ठंड की खुश्की है। ऐसे में नींद मेरी आंखों से दूर क्यों है...मेरी ही आंखों में नींद की जगह दुनिया के शोक ने क्यों जगह ले ली है। बिस्तर पर करवटें बदलते मैं सोच रहा हूं उस मां के बारे में जिसकी बेटी की शादी पक्की हो गयी है..और जिस आवाज में गई शाम तक खुशी की चमक सुनाई देती थी उसका गीलापन मुझे शोक से भर जाता है। रात वो खाने की कोशिश करती है लेकिन रोटी एक निवाला भी गले से नहीं उतरता...

क्या मेरी ही तरह उस मां की आंखों से भी नींद ने आज रात की छुट्टी ले ली होगी...या फिर ना जाने कितनी ही रातों की। घर भर में फिरकी की तरह घूमती अपनी बेटी को आज वो नजर भरकर देख रही होगी, जिस नजर से उसने आजतक कभी नहीं देखा। शायद उसने अपनी बेटी से कहा होगा कि तू मेरे साथ ही सो जाना आज। उनींदी आधी रात को उसके बालों में हाथ फेरती हुई बचपन से आज दिन तक की तस्वीरें शो-रील की तरह उसकी आखों से गुजरती होंगी। बेटी के अपने घुटनों पर चलने से लेकर एक दिन अपने पैरों पर खड़े हो जाने तक कितनी ही बातें है जिनमें कैद उसकी जिंदगी अपने बेटी के चले जाने का शोक मना रही होगी। एक ऐसा भी तो क्षण होता होगा जब उसे दुनिया के इन रीति-रिवाजों पर बेतरह घृणा होती होगी। शिव कुमार बटालवी के एक विरह गीत में बेटी अपनी मां से कहती है...मां, ये प्रेम भी उस तितली की तरह है जिसे कांटों पर बैठना ही सुहाता है।

और सोने का नाटक कर रही बेटी की आंखों से आंसू बह रहे होंगे जिसे मां देख नहीं सकती...चुपचाप बहते आंसुओं में बिछुड़ने की हुड़क तो है लेकिन रोने का शोर नहीं...मेरा प्रेमगीत भी तुमसे बिछुड़ जाने का शोक मनाता है मां। कितना मुश्किल होता होगा मां-बाप का घर छोड़ अपने प्रिय के घर की राह चुन लेना। एक सूना करके दूसरे को खुशबुओं से भर देना...कितना कुछ होता है जो उसे भूल जाना होगा...कितना कुछ होता है जिसे वो कभी नहीं भूल पाएगी। एक जोड़ी आंखें हैं, एक घर है, एक मोहल्ला, एक शहर और उन सबमें एक सा सूनापन…प्रेमगीत से बहते आंसुओं का नमक गालों से होता हुआ होंठों तक पहुंचता है। मैं सोच रहा हूं आंसुओं का ये खारापन हमारे प्रेम की खाद होता है। 

फिर उसके बिछुड़ने के शोक को आधी रात मैं जोगी ऊधो के इस ब्रम्हज्ञान में दबाने की कोशिश करता हूं कि बिछुड़ जाना ही तो आखिरी सत्य है हमारा। कुछ देर के मिलने और फिर मिलने के लिए बिछुड़ जाने के क्रम में आखिरकार एक दिन हमें दुनिया के इस रोज़नामचे से विदा ले लेनी होगी...और वहां दूसरी दुनिया में हम यहां से कुछ भी नहीं ले जा सकेंगे। खुशबुओं से भरी अपनी यादें भी नहीं...


Image courtesy: Padmakar Kappagantula, Indian Art gallery

2 टिप्‍पणियां:

jyotirmay ने कहा…

एक पिता हैं आप, पर बेटी की शादी तय होने पर मां को होने वाली अनुभुति का सुंदर मार्मिक चित्रण किया है आपने। जब तक बिटिया का विवाह तय नहीं हो जाता तब तक उसे अलग चिंता लगी रहती है और जब तय हो जाए तो यह हाल होता है।

Unknown ने कहा…

☺️

परछाईयां

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