पहला हस्ताक्षर...

कुछ-कुछ पहले जैसा...

बुधवार, 21 सितंबर 2011

आख़िरी ख़त, ज़ोया के नाम...





इस कहानी में भी दो किरदार हैं। आपकी, मेरी और किसी और की कहानी की तरह...सम्बंध हमेशा गहरे समर्पण से शुरु होते हैं लेकिन आपसी नासमझियां और वक्त की चाल उनमें ऐसी दरारें डाल देती हैं जिन्हें भर पाने का सीमेंट-गारा अब तक नहीं बना...जो लोग दरारों के साथ जीने का फैसला करते हैं, उसे समझौता कहते हैं, जिंदगी नहीं। ये चिट्ठी ज़ोया के नाम है...क्या पता, वो दुनिया के जिस भी हिस्से में हो, इसे पढ़ ले शायद...
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प्यारी जो,
देर से ऊंघ रहा हूँ, लेकिन नींद नदारद है. कहीं रुक या अटक सी गयी है शायद, ठहरी हुई खामोश रात की तरह. हवा भी ना जाने कैसे जमकर ठोस सी हो गयी है.. सांस लेने की भी मानो कोशिश सी करनी पड़ रही है.
काफी देर से, छत पर लटके, घूमते पंखे की ओर देख रहा हूँ.
कमरे में हरे रंग का जीरो वाट का बल्ब जल रहा है. बल्ब की मद्धम रौशनी में पंखे के चलने से हर ब्लेड की परछाईं बन रही है..और हर परछाईं अपने से ठीक आगे वाली परछाईं को छूने की कोशिश में भाग रही है...देख रहा हूँ, काफी देर से ये परछाइयाँ इसी कोशिश में हैं, कि एक दूसरे को पा लें, और इनकी ये कोशिश बिना रुके, बिना थके जारी है.
सन्नाटे के बावजूद परछाइयों का ये खेल ज़ेहन में ख्यालों की आंधियां चला रहा है. धमाचौकड़ी सी मची है.
इन सब के बीच मन बार बार अल-कौसर के सामने की सड़क पर जा पहुँचता है. किसी को ढूंढता है, नहीं पाकर निराश होकर तेज़ी से उन्ही सड़कों में इधर-उधर घूमने लगता है.
भागती हुई परछाइयाँ फिर दीखने लगती हैं. मानो उन्हें समझाना चाहता हूँ कि रुक जाओ, तुम एक दूसरे से कभी नहीं मिल सकते.
पर मैं कुछ सोचकर चुप रह जाता हूँ, कुछ नहीं कहता.
मन पूछता है, कि जो हुआ, वो क्यूँ हुआ? क्या जीवन की वास्तविकता यही है?
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जब भी मुझे तुम्हारी ज़रुरत होती है, तुम वहां नहीं होते. तुम शायद वो नहीं जिसे मैंने करोड़ों की भीड़ में ढूंढ़ा था, जिससे मेरा लगाव हुआ था. तुम इतने संवेदनहीन कैसे हो सकते हो, पशु की तरह? तुम्हें ख़ुशी मिलती है मुझे रुलाकर...हमारे बीच सबसे बड़ी समस्या तो बात ना करने की है...और हमेशा की तरह तुम्हारा ये चुप हो जाना!!

और तुम कार का दरवाज़ा खोल कर चली जाती हो, मुझे विश्वास नहीं होता...
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कई बार मुझे कुछ भी समझ नहीं आता जो. लगता है अपनी ओर से कोशिश तो मैं पूरी कर रहा हूँ पर वो पर्याप्त नहीं पड़ रहीं.
यूँ तो हर इतवार के बाद का सोमवार हमेशा भयावह रहा है हमारे बीच, पर आज जैसा फट पड़ना पहले कभी नहीं हुआ था, वो भी दो अनजाने, बाहरी लोगों के सामने. तुम कहती हो मैं हमेशा की तरह चुप हो गया था।
तब, अचानक कुछ चमक सा रहा था मेरी आँखों के आगे, दुःख के चमकीले एहसास की तरह.
दुःख के चमकीले एहसास की तरह??
हाँ, शायद दुःख भी चमकीला हो जाता है, अगर आप से उसकी पहचान गहरी हो जाये.
मन के किसी कोने में मैं जान गया था कि तुम कुछ ऐसा ही करोगी...मानो मैंने पहले भी कई-कई बार कहीं ऐसा होते देखा है....जैसे मैं ऐसे ही कई कई बार पीछे भागा हूँ... जैसे मैंने ये सब कई कई बार किया है...सब कुछ, अचानक बढ़ गए तनाव को शिथिल करने के लिए...किसी और वजह से नहीं.
क्या यही प्रेम है?
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जो, सोमवार की ये घटना महत्त्वपूर्ण है. हम दोनों के ही साझे जीवन पर गहरा असर डालने वाली. ये बताती है कि तुममें अब बुनियादी किस्म के बदलाव आने लगे हैं. सौ फीसदी मेरे व्यवहार की वजह से, मेरी ही नाक़ाबिली की वज़ह से, तुम ज्यादा गुस्सैल हो गयी हो. और जहां तक मेरा सवाल है, मैं तो मनुष्य के इस पक्ष को लेकर हद से ज्यादा बेपरवाह हूँ. कुछ साल पहले कम था, अब अभ्यस्त हो गया हूँ.
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प्रेम का अंकुरण मन की गीली मिटटी पर होता है. भावों का, संवेदनाओं, एक-दूसरे का ख्याल रखने का पानी मिलता रहे तो पौधा बढ़ता है, फूलता फलता है. मिटटी एक बार रौंद दी जाये, तो सूख जाती है, पौधा मुरझा कर बेजान हो जाता है.
मेरे मन की मिटटी कुछ कुछ सूखने सी लगी है जो. मन के तारों पर जंग सी लग गयी है...अब। तुम शायद सही कहती हो...मैं संवेदनहीन होता जा रहा हूँ..
पर क्या सबके प्रति?
नहीं.
और किसी से मेरे प्रेम का सम्बन्ध उत्तरदायित्व का नहीं. बाकियों पर ध्यान ना देकर, उनकी नाराज़गी की अनदेखी कर जीवन बिता पाना अपेक्षाकृत आसान है. लेकिन तुम्हारी अनदेखी कर...
!!!
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जो, दरअसल ठीक ठीक मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा. लगता है अपनी ओर से कोशिश तो मैं पूरी करता हूँ पर वो पर्याप्त नहीं पड़ रहीं. फिर ये भी लगता है कि कहीं मेरी संवेदना-असंवेदना के प्रश्नों से घिरी तुम अपना जीवन निरर्थक तो नहीं कर रही? आज के बाद अचानक मन में ये प्रश्न उभरा हैं. मेरे जीवन के कुछ दूसरे जीवित अध्याय हैं, जिनमें मैं अपनी ओर से भी शामिल हूँ. पर तुम, तुम्हारा तो मेरे प्रति समर्पण एकात्मक है. क्या ये कहीं से भी न्यायोचित होगा की मेरे जीवन के प्रश्नों का समाधान ढूंढते-ढूंढते तुम्हारा स्वयं का जीवन स्वाहा हो जाये?
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परछाइयों का खेल जारी है...जब तक पंखा चलता रहेगा, धमाचौकड़ी चलती रहेगी...मानो उन्हें समझाना चाहता हूँ कि रुक जाओ...अब तुम थक गए हो।
पर मैं कुछ सोचकर चुप रह जाता हूँ, कुछ नहीं कहता.
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और अंत में,
लिखी भाग्य में जितनी बस,
उतनी ही पायेगा हाला.
लिखा भाग्य में जैसा,
बस वैसा ही पायेगा प्याला.
लाख पटक तू हाथ पांव पर,
इससे कब कुछ होने का.
लिखी भाग्य में जो तेरे,
बस वही मिलेगी मधुशाला...
...
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Image courtesy- An artwork by Leonord Afremov, a Belarusian painter

18 टिप्‍पणियां:

कपिल शर्मा ने कहा…

शुक्लाजी बड़ी गहरी सोच है... खत भले ही जोया के नाम है, लेकिन संदेश तमाम दूसरों के लिए भी है। जोया को नाराज़गी हो सकती है, कि उसे लिखा खत सरेआम हो गया, मगर शुक्लाजी सोच बड़ी गहरी है। लगे रहो...

Vivek Shukla ने कहा…

डिस्क्लेमर डालना भूल गए शर्मा जी...सभी किरदार काल्पनिक हैं। शायद, लिखने और पढ़ने वाले भी...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

काल्पनिक पात्र कितना गहरा प्रभाव डाल जाते हैं, वास्तविक होते तो।

Puja Upadhyay ने कहा…

बल्ब की मद्धम रौशनी में पंखे के चलने से हर ब्लेड की परछाईं बन रही है..और हर परछाईं अपने से ठीक आगे वाली परछाईं को छूने की कोशिश में भाग रही है...देख रहा हूँ, काफी देर से ये परछाइयाँ इसी कोशिश में हैं, कि एक दूसरे को पा लें, और इनकी ये कोशिश बिना रुके, बिना थके जारी है.
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भागती हुई परछाइयाँ फिर दीखने लगती हैं. मानो उन्हें समझाना चाहता हूँ कि रुक जाओ, तुम एक दूसरे से कभी नहीं मिल सकते.
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मृगतृष्णा का ये नया बिम्ब उभरा है...तुम लिखते हो विवेक तो कितनी तसवीरें ज़हन में उभरती हैं, अपने पूरे रंग और खुशबू के साथ. तिलिस्म बेहद खूबसूरत रचा है...कि ताउम्र भटकने के बाद भी बस परछाई का छलावा ही हाथ आता है...बादल घुमड़ते तो हैं पर किसान जानता है कि ये बरसेंगे नहीं...इस नाउम्मीदी में भी जीने कि ऐसी अदम्य लालसा है कि बीज को पका कर खा नहीं सकता.
अद्भुत...

अनुराग ढांडा ने कहा…

पढ़ना शुरु करने से खत्म करने तक एक अजीब सा डर बना रहा मन में....शब्दों से तुम साफ़ इलक रहे हो। उम्मीद करता हूं दूसरा किरदार काल्पनिक ही है, तुमने परफेक्शन से लिखा है, ये रुहानी शब्द या इबादत न हो तो ही अच्छा है।
जो लिखना, कहना चाह रहा हूं शायद नहीं कह पाया...बस इतना ही कि मिट्टी को सूखने मत देना...

Vivek Shukla ने कहा…

@प्रवीण भाई- ये वास्तविकता की आकांक्षा ही तो छलावा है प्रवीण जी...जो है जैसा है, बस वैसा ही जी लेना..इसी संदेश, और इसी सीमा के साथ वो नीचे भेजता है हमें...लेकिन क्या करें, सच जानने की अदम्य इच्छा फॉरबिडेन फ्रूट पर मुंह मरवा ही देती है ;)

Vivek Shukla ने कहा…

@अनुराग- तुम जब तक बीयर के फव्वारे छोड़ते रहोगे इस पर, मिट्टी सूखेगी नहीं। जिम्मेदारी तुम्हारी है...मैं कमाऊं या नौकरी छोड़ दूं ;)

अनुराग ढांडा ने कहा…

चीयर्स:)

Vivek Shukla ने कहा…

@puji- ...आज नहीं तो कल, बारिश भी होगी ही...बीज पेड़ भी होगा...फल भी पकेगा धीरे-धीरे...किसान रहे ना रहे...

PRIYANKA ने कहा…

पढ़ कर बस इतना कहना चाहूंगी कि ये किरदार कतई काल्पनिक नहीं लगते,,,इसे व्यस्त जिंदगी कहिए..या कुछ....हर एक रिश्ते में एक जोया है...पर क्या दूसरा किरदार भी है....क्योकि हर बार कहना जरुरी तो नही...समझ लेना भी काफी है...काश समस्याओं में उलझा पर फिर भी सब समझने वाला वो किरदार यहा भले ही काल्पनिक हो..पर असल जिदंगी में किसी की वास्तविकता हो....शायद फिर जिंदगी ,मीठे रिश्तो के साथ जी जा सकेगी...

डॉ .अनुराग ने कहा…

शानदार .....शुक्रिया दर्पण का जिसने इस पन्ने की ओर इंडिकेटर दिया .. .

अमित चौधरी ने कहा…

पात्र मुझे काल्पनिक भले ही लगे..लेकिन कुछ दिल में चुभ गया मानों,,,,,दरार आखिर दरार ही होती है, इसे पढ़ने के बाद समझने लगा हूं। लेकिन काश की इस दरार का इलाज तलाश लिया जाए...ताकि अगली बार जब कुछ ऐसा पढू तो हर अगले शब्दों के साथ दिल की चुभन ना बढे....बहुत बढ़िया लिखते रहों, लगा कि इन शब्दों के बीच कहीं हम भी है,,,

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अंबर के आंगन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फ़िर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई....

Vivek Shukla ने कहा…

@डॉक्टर साहब- शुक्रिया...बस इसी तरह प्यार बरसता रहे। ब्लॉग की दुनिया एक ऐसे परिवार की तरह लगती है जहां सिर्फ प्यार बरसता है. अच्छा लग रहा है यहां आकर.

बेनामी ने कहा…

तुम्हारा खत पढ़ कर ऐसा लगा जैसे अपने ही जीवन की कहानी किसी और मुंह से सुन रहे हो। लेकिन फिर इतना निराश होने से काम भी नहीं चलता....तुमने एक बार के लिए ही सही थोड़ी देर के लिए ही जीवन में पीछे ले गए

Vivek Shukla ने कहा…

ये बेनामी पायल सिंह हैं, संवाददाता, आजतक। इनके दोनों कमेंट पढ़कर ये साफ हो रहा होगा कि ये उत्प्रेरक क्रिया ज्यादा है, प्रतिक्रिया कम। :)

बेनामी ने कहा…

तुम ने ये ठीक नहीं किया.....अब अगली मुलाकात कोर्ट में होगी...

Vivek Shukla ने कहा…

ये तो बता दो कौन सी कोर्ट में?

परछाईयां

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