करीब तीन साल पहले जब ब्लॉग बनाया था, तो सोचा था की रोज़ कुछ लिखा जायेगा, जिन अनगिनत कहानियों से हर रोज़ दो-चार होता हूँ, उनमें से रेशा-रेशा ही सही, कुछ हिस्सों में सबमें बांटूंगा...लेकिन समय के अभाव ने ऐसा करने नहीं दिया. मालूम होता है कि वो समय का अभाव नहीं था, सिर्फ आलस्य था. आज लगता है कि समय का अभाव तो कभी होता ही नहीं, सिर्फ उसका कु-प्रबंधन और इच्छा-शक्ति का अभाव होता है. सो आज तय करके बैठ गया कि लिखना ही है. एक मित्र ने फेसबुक पर लिखा- आज बहुत दिनों में कुछ लिखा, तो महसूस हुआ कि कई दिनों तक नेट-प्रैक्टिस न करे, तो कैसे गेंदबाज़ वाइड और नो-बाल फेंकता है....इसलिए पहले ब्लॉग से ही विकेट तो नहीं ले सकता, स्टंप के आस-पास ज़रूर फ़ेंकने की कोशिश रहेगी.
आज संयोग से हिंदी दिवस भी है...तो क्यूँ न शुरुआत उसके शोक-गीत से ही की जाये. आईआईएमसी में ६ साल पहले इसे मंच से सुनाया था, ईनामी चेक तो नहीं मिला, तालियाँ ज़रूर हाथ आई थी...
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हिंदी दिवस- एक शोकगीत
एक छोटी सी बात कहनी है आप से,
छोटी सी, जो कुछ ही क्षणों में चुक जायेगी.
ठीक वैसे ही, जैसे एक ही दिन में,
चुक जाएगा यह हिंदी दिवस.
बेचारी हिंदी के लिए,
फिर आ जाएगी अंधेरी रात,
बीत जाएगी इस दिवस के
संक्षिप्त-सीमित-पूर्वनियोजित उजाले की बात.
मैं निकला घर से आज, अलसुबह,
देखा सफ़ेद साडी के चीथड़ों में,
बमुश्किल लिपटी एक बुढिया
सुबक रही है.
कराहती उस आकृति के चारों ओर,
बना था तीव्र वेदना का एक वृत्त,
जो मुझे बरबस खींच ले गया उसकी ओर,
पूछा मैंने जाकर पास, अम्मा क्यूँ रोती हो.
क्या है ऐसी तकलीफ कोई,
जो बाँट सकूँ मैं अपिरिचित?
उसने मेरी ओर नज़र उठाये बगैर कहा,
बेटा छोड़ो यह संवेदनाएं, यथार्थ की राह लो,
कुछ नई नहीं है मेरी कहानी,
मैं हूँ तुम्हारी राष्ट्रभाषा,
बुढिया पुरानी.
हिंदी नाम है मेरा!!
जिसे उसके अपनों ने ही पराया कर दिया,
अंग्रेजी को ऐसे सर चढ़ाया,
कि मुझे अपने ही घर से बाहर कर दिया!
कहा तू अब किसी काम की नहीं है,
तुझमें अब न रोटी है न कमाई,
यही नहीं, अब तो तुझे बोलने में,
कोई शान भी नहीं है.
बड़े विद्वानों के लिए तुझमें,
विचारों का अन्वेषण भी संभव नहीं है.
ज़रा अंग्रेजी को देख...नए-नए मौलिक विचार,
नित नयी अवधारणाए मानो फूट पड़ती हैं इससे,
फिर अंग्रेजी का तो एक स्टेटस है,
और तू?
तू तो मुरझाया हुआ एक कैक्टस है...
जिसे हिंदी दिवस का पानी पिला पिला कर,
साल भर जीवित रखा जाता है.
हिंदी कहती जा रही थी...
वो भूल गए अब, कि मैं,
भारतेंदुओं, निरालों कि जननी हूँ,
कभी मन-वचन-कर्म से अपनाते,
तो पाते,
कितने मौलिक विचारों की सर्जनी हूँ.
अरे वो तो वहां से भी दुत्कारे जायेंगे,
जब अँगरेज़ उनसे उनकी भाषा का प्रश्न पूछेंगे,
तो क्या मुह दिखायेंगे?
आवेश में फिर फूट पड़ी हिंदी.
मुझसे अब रहा न गया, और मैं
वहां से उठकर चल दिया.
शाम को वापस उसी जगह से गुज़र रहा था,
मैंने देखा, पोस्टरों और बैनरों के बीच,
उसी बुढिया को रेशमी साडी में,
मंच पर बिठाया गया है,
उसके चारों ओर लोग,
तरह-तरह के भाषणों में व्यस्त हैं,
इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता,
किसी ने मेरा हाथ पकड़ा और हिलाते हुए बोला,
भाई, हैप्पी हिंदी डे!!!
मैं समझ गया,
मैं समझ गया कि फिर हिंदी-पुत्रों ने हिंदी को,
मूर्ख बनाया होगा,
ज़रूर फिर से हिंदी दिवस आया होगा.
ज़रूर फिर से हिंदी दिवस आया होगा....
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Image courtesy- artofamerica dot com