पहला हस्ताक्षर...

कुछ-कुछ पहले जैसा...

शनिवार, 26 नवंबर 2011

वो गैरवाजिब, गैरजरूरी...लेकिन फिर भी...मौजूद तो है।




कुछ उनकी, जिन्हें पढ़ते, सुनते ज़हन की शाखों ने लोच खाना सीखा...

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वो जो शायर था चुप-सा रहता था
बहकी-बहकी-सी बातें करता था
आँखें कानों पे रख के सुनता था गूँगी खामोशियों की आवाज़ें!

जमा करता था चाँद के साए
और गीली- सी नूर की बूँदें
रूखे-रूखे- से रात के पत्ते
ओक में भर के खरखराता था
 

--
 
वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था

हाँ वही, वो अजीब- सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चाँद की ठोड़ी चूमा करता था
चाँद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है...

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Poetry of Gulzar.
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Image courtesy- artofamerica dot com

गुरुवार, 17 नवंबर 2011

भ्रम भंग...



तुम तब तक मेरा हिस्सा थी
मेरे ही अंतस का,
उठते-बैठते साथ रहा करती थी
मेरी होकर..
मुझमें ही रहती थी

साथ खाना, साथ पीना
सोना साथ
सपने भी देखना साथ...और बांटना सुबह उठकर उनको
बड़ा बुरा सपना देखा आज
तुम हाथ छुड़ाकर चली गयी हो..
और तुम्हारा हंसकर कहना
मेरे ही अंदर से,
ये तो अच्छा है...कहते हैं सपने में जाने वाले साथ रहा करते हैं

साथ थी तुम, जब तक तुम्हें अभिव्यक्त नहीं किया था मैंने
जब तक तुम्हें शक्ल नहीं दी थी
शब्दों में बुना नहीं था...
अल्फाजों में चुना नहीं था...
मन से बाहर लाकर, तन में गुना नहीं था...
अब तुम बाहर हो,
डायरी में लिखी मेरी किसी कविता की तरह...
बिस्तर पर बेजान पड़ी हो...

हां, तुम्हारे होने की तरह,
भ्रम था, झूठ था ये सपनों का बूझना वो..
क्योंकि सपने में जाने वाले,
कई बार,
सचमुच चले जाया करते हैं...


Image courtesy- greeningsamandavery dot typepad dot com

बुधवार, 16 नवंबर 2011

कभी तो आएगा क़रार, खुद के अंधेरे में दफ़न, इस रूह को मेरी...




कि कुछ इंतज़ार कभी खत्म नहीं होते, उम्मीद फिर भी भागकर जाती है दरवाजे तक हर कॉलबेल पर। सरसरी निगाह से देखती है ब्लिंक करती सेलफोन की स्क्रीन। यूं जिंदगी की मसरूफियत कम नहीं होती, कि तमाम और मसलात हैं सुबह को शाम से जोड़ने के लिए, मगर तुम्हारी कमी ने हर शै भर रखी है जैसे, अपनी मौजूदगी से। तुम जाहिर भी हो और गायब भी। तो आओ दुआ करें, कि कभी तो आएगा क़रार...


(1)
मन्नतों की बुनियाद पर खड़ी,
बेपनाह ख्वाहिशों की ये जिंदगी
तुमने दी है...।
तुम, जो बेतरह खूबसूरत हो
और मजबूत भी।
इस दुनिया के जुल्म-ओ-सितम,
बर्दाश्त करने के लिए ही नहीं,
उसे अपने पैरों की ठोकर पर रखने लायक भी...
तुम्हारे ही तो दिए हुए हैं हौसले ये,
फासले ये।
तुम्हारी ही तो दी हुई है जिंदगी ये...
जो भी है,
जैसी है
खूबसूरत है...



(2)
तुमने जो कुछ भी कहा उस दिन...
ज़ख्मों-खराशों की तरह कायम है।
लेकिन दिल को तकलीफ नहीं देता..
क्योंकि
वो हक था तुम्हारा।
हां, अगर कुछ ज़ख्म से नासूर बन गया है,
तो वो है
तुम्हारी आखिरी आवाज...
जो रात भर गूंजती रही कानों में उस रोज
डू यू वांट मी, ऑर नॉट?
ये सवाल था,
आरजू थी,
या धमकीभरे लहजे में मांगा था कुछ तुमने...
ठीक-ठीक याद नहीं।
ये भी नहीं याद कि क्या जवाब दिया था मैंने...
क्योंकि तुम्हारे इस सवाल के बाद ही
खो गया था अपने अंदर छाए अंधेरे में कहीं,
गुमनाम अंधेरा,
जिसमें कुछ साफ नहीं नजर आता...
मैं क्या हूं, क्या करना चाहता हूं, क्या कर पाऊंगा।
शायद...ऐसे ही किसी मोड़ पर उस गुमनाम अंधेरे से
निकलेगी एक शक्ल
मौत की।
लेकिन उससे पहले,
बताना चाहता हूं, कि कोई ठीक-ठीक जवाब क्यों नहीं दे पाया मैं...
दरअसल,
तुम्हारी सवालिया आवाज को सुनते ही,
मेरे अंतर से निकला था जवाब...
जो तुम तक पहुंचने से पहले ही,
खो गया कहीं,
जेहन की पेंचदार नसों में छाए
उसी गुमनाम अंधेरे में...
गोया कि जवाब, सिर्फ जवाब नहीं था,
एक जिम्मेदारी थी...




(3)
तुम्हारी आवाज अब भी गूंज रही है कानों में,
और उसके पीछे भागता हूं मैं
उसे पकड़ कर अपने गले से लगा लेने की
कोशिश में,
लेकिन सिगरेट से उड़े
धुएं के छल्ले की तरह...
वो दूर कहीं गुम हो जाती है...मेरे जवाब की तलाश में।
एक अफसोस सा चटकता है जेहन में
और चुभ जाते हैं टुकड़े उसके
पूरे जिस्म में मेरे,
लेकिन खून नहीं निकलता...
क्योंकि आंसुओं के साथ ही
अब सूख चुका है लहू भी मेरा!



(4)
तुम्हें याद तो होगा,
मेन सड़क के किनारे, चीड़ के पेड़ों की दबंग चॉल से
थोड़ा बाएं होते हुए
करीब पचास फीट नीचे,
बांसों की वो बसाहट...
सुलगते इश्क के हवन की वो भीनी खुशबू ,
जिंदगी उसी बैंबू कॉटेज में कैद होकर रह गयी है
जिसमें तुम्हारे साथ आखिरी रात बितायी थी मैंने,
वो आखिरी रात
जिसमें जिंदा था मैं...


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 Image courtesy- mymodernmet dot com

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

कफ़स



इस कैनवस पर कुछ रंग हैं वादों के, कुछ स्याह बिखरा है उम्मीदों के टूटने का, वक्त की कई कई पुरानी परतें हैं जिनमें से हर एक की दास्तान है अपनी...वादों की, इरादों की, सपनों की, तामीलों की, जुड़ने और बिखरने की, मिल जाने और कभी ना बिछुड़ पाने की।


 ए कुछ साल पहले,
तुमने उम्मीदों का,
जो चराग़ जलाया था.
आने वाले कल के कैनवस पर,
हमारी, अपनी साझा ज़िंदगी का,
जो कोलाज बनाया था,
वो कैनवस,
कफ़स बन गया है अब..

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और झुलस गयी हैं उंगलियां मेरी,
हवाओं से हिफ़ाज़त करते,
तुम्हारी,
उम्मीदों के चराग़ की.

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ऐसा नहीं कि उम्मीदें चटक गयीं मेरी
या पस्त हो गया हो हौसला,
पर तुम ही कहो ना,
आखिर,
हवाओं पर आशियाने बनाने का
तुम्हारा ख़्वाब,
मेरी आंखें कब तक देखें...

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Image courtesy- bigalsartgallery dot com

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

अंधा युग





धृतराष्ट्र तो अंधा था ना, नहीं देख सकता था बाहर का यथार्थ कुछ भी। कुछ ग्राह्य नहीं था उसे, जो उनको था जो देख सकते थे आंखों से अपनी। द्रोण, भीष्म के क्रोध की आंखें भी थीं और वो सक्षम भी था...फिर उन्होंने नहीं रोका क्यों दुर्योधन को...कौरवों को। जिस मर्यादा के चीरहरण ने नाश कर दिया एक वंश का...एक राज्य का...एक कालखंड का। अंधा युग यूं तो आख्यान है मर्यादा के आचरण का ही लेकिन क्या सत्य नहीं कि सबकुछ पहले से तय है...झूठ हो या सच, दोनों दास हैं नियति के...


यदि झूठ बदलता रहता है, चेहरे, वस्त्र और चाल...
तो सच का भी
यथार्थत:
कहां होता है कोई चरित्र?

दरअसल, सच तो बस बैल हो जाने में है
आचरण करने में,
क्योंकि कृष्ण ने आदेश दिया है
आचरण में ही तुम्हारे मनुष्य होने की सार्थकता है
तुम्हारी नियति बनेंगे
आज किए गए
तुम्हारे कर्म...
वही युगों-युगों तक बनेंगे
तुम्हारा भाग्य...
अर्जुन बैल बन गया
और एक युग छला गया कृष्ण के हाथों...

तुम भी,
पक्ष लो सत्य का
या असत्य का...आचरण या निष्क्रियता का...
छले जाओगे...

दुख के अंडे



 
इन दिनों,
अपने दुखों को से रहा हूं,
से'ना तो समझते होंगे आप,
वही जो बतख करती है,
अपने अंडों के साथ,
घंटों बैठी रहती है उन पर,
अंडों में जिंदगी की,
आंच पैदा करने के लिए..
सेंकती है अपनी
जीवन-ऊर्जा से उनको...
इस सेने में ही शामिल होता है,
बतख का जीवन,
लगाव,
और करती है अपनी सुखद स्मृतियों का निर्माण वो,


ऐसे ही मैं भी से रहा हूं
सालों के सहेजे,
दुख अपने,
सेंक रहा हूं उनको
अपने ताप से,
देखना है,
जब इन दुखों के अंडे फूटते हैं,
तो,
उनमें से निकले बच्चों की
शक्ल,
किससे मिलती है...


Image courtesy- quail eggs oil painting dot com

क्यों बरस रही हो...बेमौसम?






जाने इस बारिश से कैसा नाता है...बिन पूछे, बिन बताए चली आती है...कभी आंखों में...कभी बरामदे में..चाहे मौसम भी हो या नहीं। पूछूं तो कहती है...किसी की याद में आंखे भर आने और खुश से आंखे भर जाने का भी कोई मुहूर्त होता है भला...

--

आंखें जल रही थीं
सुबह से ही आज,
गला भी रुंधा है जैसे,
जाने क्या, जाने कहां अटका है...
तुम्हारी गहराती यादों की धुंधलकी खोह में,
ढूंढ़ने से नहीं मिलता...
कोई सिरा...तुम्हारी छुअन का कोई एहसास..
उस पर ये बारिश...

एक चमकीले पीले फूल की तरह,
अभी-अभी शुरु हुआ था दिन
और बिना बात की, नवंबर की ये बारिश...?


जैसे फिर नाराज हो गयी तुम,
और सोच रहा हूं, अभी तो ठीक था सबकुछ..
फिर अचानक?
धीरे-धीरे इस बारिश में मिल गयी है जैसे...
नमी मेरे अंतस की...फैलकर
और बरसने लगी है बेबस आंखों की तरह,
जिनका दुख किसी ने जबरन बांध रखा है,
दिनों-महीनों-सालों से...
क्या कभी दुख की शक्ल,
बादलों से मिलती-जुलती है?

बरामदे से देखता
इस दुख की शक्ल पहचानने की
कोशिश कर रहा हूं मैं...
नया ही कोई रचा है मैंने,
या पिछली बारिशों का ही कोई टुकड़ा है
जो मेरी आंखों की पोरों में,
अटका रह गया था कहीं,
चुभ रहा था अब तक..
और खुल कर बरस रहा है अब.

यूं बरामदे से,
शक्ल ना बादल की दिखती है
ना अब बारिश का चेहरा ही तुमसे मिलता है
पर ये दुख...
बारिश के साथ बरसती ये चुभन,
छाती में कसकती ये जलन...
जानी पहचानी लगती है।
ना जाने किससे,
पर,
इस दुख की शक्ल,
किसी से तो मिलती-जुलती है...

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

क्या वही हूं मैं...?




क्या वही हूं मैं?
 
इस रात में अकेला हूं मैं,
ये सोच रहा हूं,
कि क्या वही हूं मैं,
जो था कुछ महीनों पहले तक...
ये यकीन, ये गुमान, ये मोहब्बत...
क्या वही हूं मैं...


क्या यही सच है?
क्या मान लूं कि खत्म हो गयी
तकलीफ की रात,
और दस्तक दे रही है नयी सुबह...
जिसमें सिर्फ खुशियां हैं,
जिंदगी जीने का अपना
अलग..आजाद...अंदाज..
ये जुनून, ये सुरूर, ये गुरूर...


क्या वही हूं मैं...
कैसे कहूं कि कितना प्यार आ रहा है तुम पर
कैसे कहूं कि कितना पछता रहा हूं...
बीते उस वक्त के लिए,
जब कह नहीं पाया तुमसे,
कि कितनी जरूरी हो तुम,
इन सांसों की आवाजाही के लिए...
ये सांस, ये आस, ये विश्वास...
क्या वही हूं मैं...

एक रात गुमशुदा है...






--
ये बयान जिस रात का है, वो रात गुमशुदा है! अगर कहीं कोई, दिन और रात की आमद-रवानगी का हिसाब-किताब रखता होगा, तो उसके बहीखाते में इस रात का हिसाब नहीं मिलेगा. रात गुमशुदा है, क्यूंकि, इस रात को 'रात' होने के माने देने वाली सुबह, कभी आई ही नहीं. वो एक बात पर रात से यूँ रूठी, कि दोनों हमेशा-हमेशा के लिए अलग हो गए. लिहाज़ा, जहाँ कहीं कोई...हिसाब-किताब...उसने रात को गुमशुदा करार दे दिया...

रात काली हो गयी थी. रात, पहले काली नहीं थी. पहले, आसमान में चाँद निकला था. रात रोशन थी. अपनी चांदनी में नहाई हुई. चाँद करीब-करीब पूरा था, इसलिए शाम होते ही रात रोशन हो गयी थी. रोशन रात, आमतौर पर काली नहीं होती, क्यूंकि चाँद निकला होता है. लेकिन कई बार चाँद बेअसर हो जाता है. रोशन रात भी काली हो जाती है.

 एक मन था जो खूब चीखना-चिल्लाना चाहता था, पर सब कुछ, अचानक, पहले से ही तय जैसा महसूस हो रहा था, Predetermind! इसीलिए मन कुछ बोल नहीं रहा था. दरअसल, मन का घड़ा भी साफ़ नहीं था शायद.
एक शरीर था, जो खूब चीख रहा था, अपनी बात मनवाने की कोशिश में. पर शायद उसे पता नहीं था कि सब-कुछ पहले से ही तय होता है..
रात, खूब लम्बी हो गयी है. पहले काली थी, अब लम्बी भी हो गयी है. काली और लम्बी रात भयावह होती है. काली रात के दामन में फूल नहीं होते. फूल होते भी हैं तो दिखाई नहीं देते. शायद वो भी काले और भयावह होते होंगे. ऐसी रात खतरनाक होती है...कई बार जानलेवा भी...
ये रात भी काटे नहीं कट रही. रात बेहद लम्बी और काली है. इसकी कोई सुबह नहीं...यह एक कभी ख़त्म न होने वाली रात है...
.
..
...
आखिरकार, उस रात की सुबह नहीं आई. वो रूठ गई, ऐसी, कि रात की तलाश अब तक जारी है...रात नहीं ढलती, न कभी ख़त्म होती है...
 

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

मुक्ति

मुक्ति...

मुझे मुक्ति चाहिए
इस भय से
इस असुरक्षा से...
सोचता हूं,
कि क्या होगा,
मेरी सांसों की आवाजाही का
आधार,
यदि नहीं मिली तुम
?
लेकिन ठहरो।
रुको।
इस भय के भी,
सिक्के की तरह दो पहलू हैं
सोचता हूं,
कि क्या होगा,
यदि मिल गयी तुम
?
क्या होगा
,
यदि मिल गयी तुम...

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

एतबार





ये पहले लिख दूं, कि इन पंक्तियों में हार की हताशा नहीं, जीत जाने का हौसला है। पा सकने और पा लेने का एतबार है.
...
..
.
ये डूबता सूरज,
तिनका तिनका बिखरती...
गहरी उदास शाम,
कुछ देर में स्याह अंधेरे के आगे,
घुटने टेक देगी ये।

जाने कब से निहार रहा हूं इसको...
आंखें थक रही हैं,
पर कान नहीं मानते...
जाने कब से पहरा दे रहे हैं दरवाजे पर,
तुम्हारी आहटों का इंतज़ार है इनको...
तुम्हारे आने का एतबार है इनको...
...
..
.
मनके-मनके मन, तिनका-तिनका तन।

बुधवार, 21 सितंबर 2011

आख़िरी ख़त, ज़ोया के नाम...





इस कहानी में भी दो किरदार हैं। आपकी, मेरी और किसी और की कहानी की तरह...सम्बंध हमेशा गहरे समर्पण से शुरु होते हैं लेकिन आपसी नासमझियां और वक्त की चाल उनमें ऐसी दरारें डाल देती हैं जिन्हें भर पाने का सीमेंट-गारा अब तक नहीं बना...जो लोग दरारों के साथ जीने का फैसला करते हैं, उसे समझौता कहते हैं, जिंदगी नहीं। ये चिट्ठी ज़ोया के नाम है...क्या पता, वो दुनिया के जिस भी हिस्से में हो, इसे पढ़ ले शायद...
...
..
.
प्यारी जो,
देर से ऊंघ रहा हूँ, लेकिन नींद नदारद है. कहीं रुक या अटक सी गयी है शायद, ठहरी हुई खामोश रात की तरह. हवा भी ना जाने कैसे जमकर ठोस सी हो गयी है.. सांस लेने की भी मानो कोशिश सी करनी पड़ रही है.
काफी देर से, छत पर लटके, घूमते पंखे की ओर देख रहा हूँ.
कमरे में हरे रंग का जीरो वाट का बल्ब जल रहा है. बल्ब की मद्धम रौशनी में पंखे के चलने से हर ब्लेड की परछाईं बन रही है..और हर परछाईं अपने से ठीक आगे वाली परछाईं को छूने की कोशिश में भाग रही है...देख रहा हूँ, काफी देर से ये परछाइयाँ इसी कोशिश में हैं, कि एक दूसरे को पा लें, और इनकी ये कोशिश बिना रुके, बिना थके जारी है.
सन्नाटे के बावजूद परछाइयों का ये खेल ज़ेहन में ख्यालों की आंधियां चला रहा है. धमाचौकड़ी सी मची है.
इन सब के बीच मन बार बार अल-कौसर के सामने की सड़क पर जा पहुँचता है. किसी को ढूंढता है, नहीं पाकर निराश होकर तेज़ी से उन्ही सड़कों में इधर-उधर घूमने लगता है.
भागती हुई परछाइयाँ फिर दीखने लगती हैं. मानो उन्हें समझाना चाहता हूँ कि रुक जाओ, तुम एक दूसरे से कभी नहीं मिल सकते.
पर मैं कुछ सोचकर चुप रह जाता हूँ, कुछ नहीं कहता.
मन पूछता है, कि जो हुआ, वो क्यूँ हुआ? क्या जीवन की वास्तविकता यही है?
....
जब भी मुझे तुम्हारी ज़रुरत होती है, तुम वहां नहीं होते. तुम शायद वो नहीं जिसे मैंने करोड़ों की भीड़ में ढूंढ़ा था, जिससे मेरा लगाव हुआ था. तुम इतने संवेदनहीन कैसे हो सकते हो, पशु की तरह? तुम्हें ख़ुशी मिलती है मुझे रुलाकर...हमारे बीच सबसे बड़ी समस्या तो बात ना करने की है...और हमेशा की तरह तुम्हारा ये चुप हो जाना!!

और तुम कार का दरवाज़ा खोल कर चली जाती हो, मुझे विश्वास नहीं होता...
....
कई बार मुझे कुछ भी समझ नहीं आता जो. लगता है अपनी ओर से कोशिश तो मैं पूरी कर रहा हूँ पर वो पर्याप्त नहीं पड़ रहीं.
यूँ तो हर इतवार के बाद का सोमवार हमेशा भयावह रहा है हमारे बीच, पर आज जैसा फट पड़ना पहले कभी नहीं हुआ था, वो भी दो अनजाने, बाहरी लोगों के सामने. तुम कहती हो मैं हमेशा की तरह चुप हो गया था।
तब, अचानक कुछ चमक सा रहा था मेरी आँखों के आगे, दुःख के चमकीले एहसास की तरह.
दुःख के चमकीले एहसास की तरह??
हाँ, शायद दुःख भी चमकीला हो जाता है, अगर आप से उसकी पहचान गहरी हो जाये.
मन के किसी कोने में मैं जान गया था कि तुम कुछ ऐसा ही करोगी...मानो मैंने पहले भी कई-कई बार कहीं ऐसा होते देखा है....जैसे मैं ऐसे ही कई कई बार पीछे भागा हूँ... जैसे मैंने ये सब कई कई बार किया है...सब कुछ, अचानक बढ़ गए तनाव को शिथिल करने के लिए...किसी और वजह से नहीं.
क्या यही प्रेम है?
....
जो, सोमवार की ये घटना महत्त्वपूर्ण है. हम दोनों के ही साझे जीवन पर गहरा असर डालने वाली. ये बताती है कि तुममें अब बुनियादी किस्म के बदलाव आने लगे हैं. सौ फीसदी मेरे व्यवहार की वजह से, मेरी ही नाक़ाबिली की वज़ह से, तुम ज्यादा गुस्सैल हो गयी हो. और जहां तक मेरा सवाल है, मैं तो मनुष्य के इस पक्ष को लेकर हद से ज्यादा बेपरवाह हूँ. कुछ साल पहले कम था, अब अभ्यस्त हो गया हूँ.
....
प्रेम का अंकुरण मन की गीली मिटटी पर होता है. भावों का, संवेदनाओं, एक-दूसरे का ख्याल रखने का पानी मिलता रहे तो पौधा बढ़ता है, फूलता फलता है. मिटटी एक बार रौंद दी जाये, तो सूख जाती है, पौधा मुरझा कर बेजान हो जाता है.
मेरे मन की मिटटी कुछ कुछ सूखने सी लगी है जो. मन के तारों पर जंग सी लग गयी है...अब। तुम शायद सही कहती हो...मैं संवेदनहीन होता जा रहा हूँ..
पर क्या सबके प्रति?
नहीं.
और किसी से मेरे प्रेम का सम्बन्ध उत्तरदायित्व का नहीं. बाकियों पर ध्यान ना देकर, उनकी नाराज़गी की अनदेखी कर जीवन बिता पाना अपेक्षाकृत आसान है. लेकिन तुम्हारी अनदेखी कर...
!!!
...
जो, दरअसल ठीक ठीक मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा. लगता है अपनी ओर से कोशिश तो मैं पूरी करता हूँ पर वो पर्याप्त नहीं पड़ रहीं. फिर ये भी लगता है कि कहीं मेरी संवेदना-असंवेदना के प्रश्नों से घिरी तुम अपना जीवन निरर्थक तो नहीं कर रही? आज के बाद अचानक मन में ये प्रश्न उभरा हैं. मेरे जीवन के कुछ दूसरे जीवित अध्याय हैं, जिनमें मैं अपनी ओर से भी शामिल हूँ. पर तुम, तुम्हारा तो मेरे प्रति समर्पण एकात्मक है. क्या ये कहीं से भी न्यायोचित होगा की मेरे जीवन के प्रश्नों का समाधान ढूंढते-ढूंढते तुम्हारा स्वयं का जीवन स्वाहा हो जाये?
..
परछाइयों का खेल जारी है...जब तक पंखा चलता रहेगा, धमाचौकड़ी चलती रहेगी...मानो उन्हें समझाना चाहता हूँ कि रुक जाओ...अब तुम थक गए हो।
पर मैं कुछ सोचकर चुप रह जाता हूँ, कुछ नहीं कहता.
.
और अंत में,
लिखी भाग्य में जितनी बस,
उतनी ही पायेगा हाला.
लिखा भाग्य में जैसा,
बस वैसा ही पायेगा प्याला.
लाख पटक तू हाथ पांव पर,
इससे कब कुछ होने का.
लिखी भाग्य में जो तेरे,
बस वही मिलेगी मधुशाला...
...
..
.


--
Image courtesy- An artwork by Leonord Afremov, a Belarusian painter

बुधवार, 14 सितंबर 2011

सिलसिला शुरू हुआ...



रीब तीन साल पहले जब ब्लॉग बनाया था, तो सोचा था की रोज़ कुछ लिखा जायेगा, जिन अनगिनत कहानियों से हर रोज़ दो-चार होता हूँ, उनमें से रेशा-रेशा ही सही, कुछ हिस्सों में सबमें बांटूंगा...लेकिन समय के अभाव ने ऐसा करने नहीं दिया. मालूम होता है कि वो समय का अभाव नहीं था, सिर्फ आलस्य था. आज लगता है कि समय का अभाव तो कभी होता ही नहीं, सिर्फ उसका कु-प्रबंधन और इच्छा-शक्ति का अभाव होता है. सो आज तय करके बैठ गया कि लिखना ही है. एक मित्र ने फेसबुक पर लिखा- आज बहुत दिनों में कुछ लिखा, तो महसूस हुआ कि कई दिनों तक नेट-प्रैक्टिस न करे, तो कैसे गेंदबाज़ वाइड और नो-बाल फेंकता है....इसलिए पहले ब्लॉग से ही विकेट तो नहीं ले सकता, स्टंप के आस-पास ज़रूर फ़ेंकने की कोशिश रहेगी. 
आज संयोग से हिंदी दिवस भी है...तो क्यूँ न शुरुआत उसके शोक-गीत से ही की जाये. आईआईएमसी में ६ साल पहले इसे मंच से सुनाया था, ईनामी चेक तो नहीं मिला, तालियाँ ज़रूर हाथ आई थी...

--
हिंदी दिवस- एक शोकगीत
एक छोटी सी बात कहनी है आप से,
छोटी सी, जो कुछ ही क्षणों में चुक जायेगी.
ठीक वैसे ही, जैसे एक ही दिन में,
चुक जाएगा यह हिंदी दिवस.

बेचारी हिंदी के लिए,
फिर आ जाएगी अंधेरी रात,
बीत जाएगी इस दिवस के 
संक्षिप्त-सीमित-पूर्वनियोजित उजाले की बात.

मैं निकला घर से आज, अलसुबह,
देखा सफ़ेद साडी के चीथड़ों में,
बमुश्किल लिपटी एक बुढिया
सुबक रही है.
कराहती उस आकृति के चारों ओर,
बना था तीव्र वेदना का एक वृत्त,
जो मुझे बरबस खींच ले गया उसकी ओर,

पूछा मैंने जाकर पास, अम्मा क्यूँ रोती हो.
क्या है ऐसी तकलीफ कोई,
जो बाँट सकूँ मैं अपिरिचित?
उसने मेरी ओर नज़र उठाये बगैर कहा,
बेटा छोड़ो यह संवेदनाएं, यथार्थ की राह लो,
कुछ नई नहीं है मेरी कहानी,
मैं हूँ तुम्हारी राष्ट्रभाषा,
बुढिया पुरानी.
हिंदी नाम है मेरा!!
जिसे उसके अपनों ने ही पराया कर दिया,
अंग्रेजी को ऐसे सर चढ़ाया,
कि मुझे अपने ही घर से बाहर कर दिया!

कहा तू अब किसी काम की नहीं है,
तुझमें अब न रोटी है न कमाई,
यही नहीं, अब तो तुझे बोलने में,
कोई शान भी नहीं है.
बड़े विद्वानों के लिए तुझमें,
विचारों का अन्वेषण भी संभव नहीं  है.

ज़रा अंग्रेजी को देख...नए-नए मौलिक विचार,
नित नयी अवधारणाए मानो फूट पड़ती हैं इससे,

फिर अंग्रेजी का तो एक स्टेटस है,
और तू?
तू तो मुरझाया हुआ एक कैक्टस है...
जिसे हिंदी दिवस का पानी पिला पिला कर,
साल भर जीवित रखा जाता है.

हिंदी कहती जा रही थी...
वो भूल गए अब, कि मैं,
भारतेंदुओं, निरालों कि जननी हूँ,
कभी मन-वचन-कर्म से अपनाते,
तो पाते,
कितने मौलिक विचारों की सर्जनी हूँ.
अरे वो तो वहां से भी दुत्कारे जायेंगे,
जब अँगरेज़ उनसे उनकी भाषा का प्रश्न पूछेंगे,
तो क्या मुह दिखायेंगे?
आवेश में फिर फूट पड़ी हिंदी.

मुझसे अब रहा न गया, और मैं
वहां से उठकर चल दिया.

शाम को वापस उसी जगह से गुज़र रहा था,
मैंने देखा, पोस्टरों और बैनरों के बीच,
उसी बुढिया को रेशमी साडी में,
मंच पर बिठाया गया है,
उसके चारों ओर लोग,
तरह-तरह के भाषणों में व्यस्त हैं,
इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता,
किसी ने मेरा हाथ पकड़ा और हिलाते हुए बोला,
भाई, हैप्पी हिंदी डे!!!
मैं समझ गया,
मैं समझ गया कि फिर हिंदी-पुत्रों ने हिंदी को,
मूर्ख बनाया होगा,
ज़रूर फिर से हिंदी दिवस आया होगा.
ज़रूर फिर से हिंदी दिवस आया होगा....
   
--
   
Image courtesy- artofamerica dot com

परछाईयां

...