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सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

क्या वही हूं मैं...?




क्या वही हूं मैं?
 
इस रात में अकेला हूं मैं,
ये सोच रहा हूं,
कि क्या वही हूं मैं,
जो था कुछ महीनों पहले तक...
ये यकीन, ये गुमान, ये मोहब्बत...
क्या वही हूं मैं...


क्या यही सच है?
क्या मान लूं कि खत्म हो गयी
तकलीफ की रात,
और दस्तक दे रही है नयी सुबह...
जिसमें सिर्फ खुशियां हैं,
जिंदगी जीने का अपना
अलग..आजाद...अंदाज..
ये जुनून, ये सुरूर, ये गुरूर...


क्या वही हूं मैं...
कैसे कहूं कि कितना प्यार आ रहा है तुम पर
कैसे कहूं कि कितना पछता रहा हूं...
बीते उस वक्त के लिए,
जब कह नहीं पाया तुमसे,
कि कितनी जरूरी हो तुम,
इन सांसों की आवाजाही के लिए...
ये सांस, ये आस, ये विश्वास...
क्या वही हूं मैं...

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अपने वही होने का अहसास बीच बीच में होते रहना चाहिये।

Unknown ने कहा…

हां, पूर्णिमा के चांद की तरह...महीने भर की घट-बढ़ के बीच...एक दिन के लिए 'वही' होने का एहसास...

परछाईयां

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