पहला हस्ताक्षर...

कुछ-कुछ पहले जैसा...

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

क्या वही हूं मैं...?




क्या वही हूं मैं?
 
इस रात में अकेला हूं मैं,
ये सोच रहा हूं,
कि क्या वही हूं मैं,
जो था कुछ महीनों पहले तक...
ये यकीन, ये गुमान, ये मोहब्बत...
क्या वही हूं मैं...


क्या यही सच है?
क्या मान लूं कि खत्म हो गयी
तकलीफ की रात,
और दस्तक दे रही है नयी सुबह...
जिसमें सिर्फ खुशियां हैं,
जिंदगी जीने का अपना
अलग..आजाद...अंदाज..
ये जुनून, ये सुरूर, ये गुरूर...


क्या वही हूं मैं...
कैसे कहूं कि कितना प्यार आ रहा है तुम पर
कैसे कहूं कि कितना पछता रहा हूं...
बीते उस वक्त के लिए,
जब कह नहीं पाया तुमसे,
कि कितनी जरूरी हो तुम,
इन सांसों की आवाजाही के लिए...
ये सांस, ये आस, ये विश्वास...
क्या वही हूं मैं...

एक रात गुमशुदा है...






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ये बयान जिस रात का है, वो रात गुमशुदा है! अगर कहीं कोई, दिन और रात की आमद-रवानगी का हिसाब-किताब रखता होगा, तो उसके बहीखाते में इस रात का हिसाब नहीं मिलेगा. रात गुमशुदा है, क्यूंकि, इस रात को 'रात' होने के माने देने वाली सुबह, कभी आई ही नहीं. वो एक बात पर रात से यूँ रूठी, कि दोनों हमेशा-हमेशा के लिए अलग हो गए. लिहाज़ा, जहाँ कहीं कोई...हिसाब-किताब...उसने रात को गुमशुदा करार दे दिया...

रात काली हो गयी थी. रात, पहले काली नहीं थी. पहले, आसमान में चाँद निकला था. रात रोशन थी. अपनी चांदनी में नहाई हुई. चाँद करीब-करीब पूरा था, इसलिए शाम होते ही रात रोशन हो गयी थी. रोशन रात, आमतौर पर काली नहीं होती, क्यूंकि चाँद निकला होता है. लेकिन कई बार चाँद बेअसर हो जाता है. रोशन रात भी काली हो जाती है.

 एक मन था जो खूब चीखना-चिल्लाना चाहता था, पर सब कुछ, अचानक, पहले से ही तय जैसा महसूस हो रहा था, Predetermind! इसीलिए मन कुछ बोल नहीं रहा था. दरअसल, मन का घड़ा भी साफ़ नहीं था शायद.
एक शरीर था, जो खूब चीख रहा था, अपनी बात मनवाने की कोशिश में. पर शायद उसे पता नहीं था कि सब-कुछ पहले से ही तय होता है..
रात, खूब लम्बी हो गयी है. पहले काली थी, अब लम्बी भी हो गयी है. काली और लम्बी रात भयावह होती है. काली रात के दामन में फूल नहीं होते. फूल होते भी हैं तो दिखाई नहीं देते. शायद वो भी काले और भयावह होते होंगे. ऐसी रात खतरनाक होती है...कई बार जानलेवा भी...
ये रात भी काटे नहीं कट रही. रात बेहद लम्बी और काली है. इसकी कोई सुबह नहीं...यह एक कभी ख़त्म न होने वाली रात है...
.
..
...
आखिरकार, उस रात की सुबह नहीं आई. वो रूठ गई, ऐसी, कि रात की तलाश अब तक जारी है...रात नहीं ढलती, न कभी ख़त्म होती है...
 

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

मुक्ति

मुक्ति...

मुझे मुक्ति चाहिए
इस भय से
इस असुरक्षा से...
सोचता हूं,
कि क्या होगा,
मेरी सांसों की आवाजाही का
आधार,
यदि नहीं मिली तुम
?
लेकिन ठहरो।
रुको।
इस भय के भी,
सिक्के की तरह दो पहलू हैं
सोचता हूं,
कि क्या होगा,
यदि मिल गयी तुम
?
क्या होगा
,
यदि मिल गयी तुम...

परछाईयां

...