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बुधवार, 8 अगस्त 2012

अफसोस




चित्रलेखा को पढ़ते हुए एक अनसुलझा उम्रदराज सवाल फिर से फन उठा लेता है कि प्रेम क्या है। क्या कोई पाप और पुण्य से परे जाकर इसकी ठीक-ठीक परिभाषा गढ़ पाएगा कभी। प्यार करते हुए भी गुलज़ार का चंदन चला गया और इतनी दूर चला गया कि वहां तक सुधा की आवाज़ भी नहीं पहुंच सकती थी। चित्रलेखा बीजगुप्त से दूर जाती हुई तस्दीक करती है आत्मा अमर होगी पर प्रेम नहीं। अमर तो वो होता है जिसका जन्म ही नहीं हुआ, भला मौत उसकी झोली में क्या पाएगी। पर प्रेम तो जन्म लेता है...मरता है या नहीं, इस पर अब तक ठीक ठीक मेरी राय नहीं बन पायी है। शायद मरता है, शायद नहीं। कभी कभी मर भी जाता है।

हां, अफसोस की उम्र जरूर होती है...

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एक उम्र के बाद खत्म हो जाता है अफसोस
उन ख्वाहिशों के साथ ही,
जिनकी उम्र,
तुम्हारी याद जितनी ही थी.
और याद...
मेरी हमउम्र.

एक उम्र के बाद नहीं बचती उम्र अफसोस की
तब नहीं मतलब रखती ये बात
कि नहीं हूं मैं उसके पहलू में,
या कि गिर गए उम्र की बसंत से
तमाम हरे पत्ते.
कट गया वक्त,
तुम्हारे साथ.

नहीं होता एक उम्र के बाद अफसोस
ये देखकर कि,
तुम्हारे बिना बेकार ही
वक्त की दीवार पर चॉक से लिखता-मिटाता रहा तुम्हारा नाम.
तुम्हारे इंतज़ार की रोशनी में.
नहीं लौटी तुम और छलांगे मारकर
ओझल हो गया मेरा वक्त.
जिसके सिर पर कई दिनों तक थे मेरे कदमों के निशान.

नहीं रहा अफसोस कि अपने हिस्से के
गहरे अंधेरे में
छायी रहती है कभी ना खत्म होने वाली उदासी और चुप्पी
नहीं पंख मारता कभी कोई अनचीन्हा कबूतर
और छत पर,
तुम्हारी लक-दक करती दुनिया में
नहीं होती कभी रात.

रीत जाता है अफसोस कि एक दिन
ढल जाता है हमेशा के लिए दिन
उड़ जाते हैं पक्षी कभी ना लौटने के लिए,
और मिल जाता है सब,
इसी मिट्टी में।



Image courtesy- http://img.ehowcdn.com

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जब प्रेम बदा है माटी से, उसमें मिल कर खो जाना है,
माटी का सोंधापन महके, निष्काम जगत अपनाना है।

परछाईयां

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