आज अचानक आत्मस्वीकृति के एक क्षण में मैं सोचता हूं कि क्या इस समाज के तमाम नैतिक और उपयोगितावादी मानदंडों के लिहाज से मैं एकदम आवारा और बेकार इंसान नहीं हूं...थोड़ी देर में एक अलसायी मादक आवाज में उत्तर आता है...हां हो...लेकिन मेरे लिए नहीं...
इस आवाज की शक्ल नहीं दिखती।
भीड़ की उदासी और एकांत घने जंगल की तरह सीमाहीन और डरावना है...उदासी के पंखों की उड़ान भी मन को नहीं भाती। कभी कभी कोई ख्याल मुझे इस उदासी के इस जंगल से हाईजैक कर ले जाता है...आमतौर पर वो या तो तुमसे जुड़ा होता है या मैं उसे तुमसे जोड़ना चाहता हूं। लेकिन इन दोनों में से किसी भी स्थिति के मुकम्मल ना हो पाने पर लिसलिसा, गीला, काला और भयावह...अकेलेपन का जंगल मुझे दबोच लेता है। जब भी तुम्हारे सोहबत का सुख पाने की मेरी उम्मीदें टूटती हैं, मैं दूसरों के लिए हिंसक, तुम्हारे लिए निष्क्रिय और खुद के लिए नकारात्मक हो जाता हूं। तुम कई बार कहती हो, तुम जो ध्यान करते थे, उसे अब क्यों नहीं करते...पढ़ते क्यों नहीं, या जो तुम्हें अच्छा लगता है, लिखना...लिखते क्यों नहीं.
यूं तुमसे बचने को आश्वासनों का जाल भले बुन देता हूं पर नहीं लिख पाता। विचार बनते हैं, और बिखर जाते हैं। मैं जानता हूं लगातार लिखने से व्यक्ति अच्छा लिखने लगता है। फिर मेरी संवेदनाओं की गीली मिट्टी में अल्फ़ाजों की शक्ल कई लोगों को जानी-पहचानी लगने लगती है, लोग आमतौर पर उससे प्यार करने लगते हैं...ये मुझे अच्छा भी लगता है...लेकिन इतना नहीं कि इसके लिए मैं रोज लिखने ही बैठ जाऊं...मुझे अकेलेपन के इस अवसाद से प्यार हो गया है...अलसाया हुआ अवसाद।
इस सवाल के जवाब में कई सारे ठोस जवाबों की श्रृंखला बन जाती है कि मैं तुमसे प्यार क्यों करता हूं। लेकिन मैं सोच रहा हूं कि तुम मुझे प्यार क्यों करती हो...ऐसा पहले भी कई बार सोच चुका हूं। लेकिन आज तक कभी कोई ठोस जवाब नहीं मिलता। अचानक लगता है कि मेरी सारी क्रियाएं अपने जीवन का व्यर्थ विस्तार सिमटते हुए देखने के आसपास संकुचित या फैली हुई हैं। मैं क्या ऐसा कर पाऊंगा जिससे किसी के जीवन के इस बने-बनाए क्रम में कोई बदलाव ला सकूं, कोई सुख पैदा कर सकूं...तुम्हारी-मेरी बदलाव लाने की ख्वाहिशें, दरअसल तो इसी कवायद का हिस्सा हैं ना कि खुद का नाम इतिहास की स्मृतियों के दस्तावेजों में हमेशा हमेशा के लिए सुरक्षित रह जाए...मेरे मन में अक्षय यश की ये कामना धुंधली हो चुकी है।
हां, मैं जिंदगी की कुछ चीजों को अब भी सलीके से रखना चाहता हूं, लेकिन वो नितांत निजी है। निजी माने उनका होना ना होना मैं अपने जरिए ही चाहता हूं। क्या ऐसे हो जाने में और तुम्हारी तरह महात्वाकांक्षा के अरण्यों में तपस्या कर कुछ महान रचना करने में कोई बड़ा अंतर है...समय की गर्द से कोई कुछ साल आगे तक ही तो बच सकता है, नष्ट तो सभी को होना है। लेकिन सवाल सिर्फ ये नहीं है। जीवन का मौजूदा हिस्सा, विरोधाभासों की कुंडली मारे सांप की तरह मुझे घूरता रहता है, ज़रा बचने की कोशिश पर सारा ज़हर जिस्म में उतार देने की फुंफकार करता मेरे सीने पर बैठा रहता है...उसका फन मैं अपनी दो आंखों के ठीक बीचोंबीच महसूस करता हूं।
जाने ये किस खालीपन को भरने का जुनून है कि जनम-मरण के इस चक्कर से मुक्ति नहीं मिलती...फिर फिर जन्मता हूं...फिर फिर मरने के लिए...मैं किस प्रेम का भूखा हूं कि किसी की परिपाटियों पर ठीकठाक बैठ नहीं पाता...क्या तुम्हारी दरांती से संवरेगी मेरे मन की ये बेडौल कुंदा...
इन्हीं विरोधाभासी सवालों की जकड़न में जब दम घुटने लगता है तो तुम्हारी याद आती है...ऐसे, कि शायद किसी मरते हुए को जिंदगी याद आए...एक आह उठती है, तुम्हारा नर्म, नाजुक बदन याद आता है....आंखों के आगे धुंधलका छाने लगता है...चीड़ की गीली लकड़ियों का हवन...सुलगने लगता है...इश्क की खुशबू की मदहोशी में मैं फिर जिंदा हो उठता हूं...
तुम्हारी विलक्षणता तुम्हें सदियों तक जिंदा रखेगी...लेकिन मैं...
मेरा कोई उपयोग नहीं है!!
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