पहला हस्ताक्षर...

कुछ-कुछ पहले जैसा...

शनिवार, 29 सितंबर 2012

वजहें...




रवाजे पर कुछ आहटें होती हैं, कुछ सरगोशियां ताज़ादम वक्त की...बालकनी से आती सुबह की हवा करवट बदलती है और मेरा हाथ पकड़कर लौटा लाती हैं मुझे ख्यालों की दुनिया से वापस। जिंदगी माज़ी की कैद में है...और खुश है। इसका ग़म भी नहीं क्योंकि तुम्हारी यादों में गुंथा एकाकीपन का ये बियाबान कितना भी सूनसान क्यों ना हो, अचानक किसी मोड़ पर छलकने लगता है कुछ...और फिर कई-कई दिनों तक नम रहती हैं आंखें... कैसे और क्यों बरसती रहती हैं, उन दिनों ये समझ नहीं आता। यूं उम्मीद एक भरा-पूरा शब्द है, लेकिन मेरे एकाकीपन के अवसाद से जीत नहीं पाता। बकरी के मेमने की तरह हमेशा मेरे पहलू से चिपका ये एकाकीपन, चुप बैठा कितनी ही यादों शक्लें बुनता रहता है। कैसा अजीब अकेलापन है...तुम हो, मैं हूं, दूर तक फैला कभी खत्म ना होने वाला बियाबान है और ये एकाकीपन भी...

सोचता हूं जिंदगी अकेलेपन की गहरी और कभी ना खत्म होने वाली ओपेरा सिंफनी की तरह है...संगीत की कितनी परतें लिपटी हुई हैं तुम्हारी यादों के साज़ पर...डेस्कटॉप से चिपकी तुम्हारी तस्वीरों के कई कई फ्रेमों पर...प्याज की तरह परतें उतारता जैसे जैसे मैं अंदर तक पहुंचता हूं...तुम्हारी तमाम यादों के खालीपन का राज़ बेपर्दा होता जाता है...अब ज़हन लाख समझाए लेकिन दिल कहां मानता है कि तुम नहीं हो, कहीं नहीं हो। नातजरुबाकारी से वाइज़ की ये बाते हैं जैसी कैफियत और कितनी ही दलीलें है उसके पास। एकाकीपन शक्ल बुनता रहता है जो चुपचाप बैठी रहती है पहलू में और एक गमगीन अंधेरे में डूबता सा जाता है कुछ...शक्ल बुझती है और अचानक धुंधली होकर फिर नजर आने लगती है..मैं सचेत होकर देखता हूं...तो पाता हूं कि मेरा एक हिस्सा देर तक उस शक्ल से बातें करता रहता है और दूसरा निगाह जमाए रखता है खालीपन के अगले पैतरे पर...तमाम कोशिशें नाकाम होती जाती हैं और जिरहबख्तर हो जाते हैं बेकार, उससे आखिरी मुलाकात तक का सब्र भी नहीं रख पाते।

इस अफसुर्दा से अंधेरे से बाहर निकलने की कोशिश कई बार करता हूं लेकिन उसके लिए तुम्हारी आवाज़ के रोशनदान ज़रूरी हैं जो नहीं मिलते...ये जानता हूं कि नाकामी ही हाथ आएगी फिर भी हरवक्त उसे जीता हुआ उसे भुलाने की कोशिश में लगा रहता हूं...अंधेरे के दामन में मुंह छुपाए अंधेरे को भुला देने की नाकाम कोशिशें...

क्या जरूरी है कि ये जिंदगी करीने से जी जाए...यूं भी जिंदगी में सबकुछ सिलसिलेवार ढंग से कहां होता है। तमाम वाकयात देर शाम रस्सी से उतारकर फेंके सूखे कपड़ों की तरह बेतरतीब पड़े हैं। एक शाम अचानक कोई चला आता है और उनींदा कर जाता है...और फिर दे जाता है नींद का गहरा अंधेरा। जागने पर दिनों के गहरे फासले और शामों की देर तक बिछी रहने वाली गीली उदासी...

दो आंखें हैं...एक रोने के लिए...और एक हंसने के लिए।

जिंदगी नए पंखों से उड़ान भरती है...कुछ अच्छे और ज्यादा बुरे हालात कभी बदल ही जाते हैं वक्त के पहिए पर सफर करते...पर आप सोचते हैं जीने की वजहों के बारे में...कि कोई कानों में कहता है, जिंदगी लंबी है...यूं नहीं काटी जाती। लेकिन वजहें...जब सूने पड़े डायरी के पन्नों पर करीने से लिखना चाहें आप...वजहें...तो वो आसपास कहीं नहीं होतीं। वो होती हैं आपकी पहुंच से तकरीबन बाहर...


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Image courtesy- Purple Twilight from .vhampyreart.com
 

3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

जिंदगी नए पंखों से उड़ान भरती है...कुछ अच्छे और ज्यादा बुरे हालात कभी बदल ही जाते हैं वक्त के पहिए पर सफर करते...पर आप सोचते हैं जीने की वजहों के बारे में...कि कोई कानों में कहता है, जिंदगी लंबी है...यूं नहीं काटी जाती। लेकिन वजहें...जब सूने पड़े डायरी के पन्नों पर करीने से लिखना चाहें आप...वजहें...तो वो आसपास कहीं नहीं होतीं। वो होती हैं आपकी पहुंच से तकरीबन बाहर...
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ये वजहें ही तो हैं जिनके पीछे हम भागते हैं, दिन रात...हमें जिंदा रखने का जरिया। ये वजहें ना हों तो जीने की वो वजह भी खत्म हो जाएगी...शायद

Unknown ने कहा…

Vinay- Flames to dust, lovers to friends...why do all things come to an end! More than those reasons, you feel the gravity of life that pulls you back...al the time! and you live, and you live on!

Unknown ने कहा…

क्योंकि जीना इसी का नाम है :-)

परछाईयां

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