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कुछ-कुछ पहले जैसा...

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

एतबार





ये पहले लिख दूं, कि इन पंक्तियों में हार की हताशा नहीं, जीत जाने का हौसला है। पा सकने और पा लेने का एतबार है.
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ये डूबता सूरज,
तिनका तिनका बिखरती...
गहरी उदास शाम,
कुछ देर में स्याह अंधेरे के आगे,
घुटने टेक देगी ये।

जाने कब से निहार रहा हूं इसको...
आंखें थक रही हैं,
पर कान नहीं मानते...
जाने कब से पहरा दे रहे हैं दरवाजे पर,
तुम्हारी आहटों का इंतज़ार है इनको...
तुम्हारे आने का एतबार है इनको...
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मनके-मनके मन, तिनका-तिनका तन।

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

कभी सोचा नही था कि तुम इतना अच्छा लिखते हो...बेहतरीन

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

दमदार..

kanu..... ने कहा…

sunadar
pahli baar lehrein se yaha tak aana hua hua aur aakar accha laga....

परछाईयां

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