कि कुछ इंतज़ार कभी खत्म नहीं होते, उम्मीद फिर भी भागकर जाती है दरवाजे तक हर कॉलबेल पर। सरसरी निगाह से देखती है ब्लिंक करती सेलफोन की स्क्रीन। यूं जिंदगी की मसरूफियत कम नहीं होती, कि तमाम और मसलात हैं सुबह को शाम से जोड़ने के लिए, मगर तुम्हारी कमी ने हर शै भर रखी है जैसे, अपनी मौजूदगी से। तुम जाहिर भी हो और गायब भी। तो आओ दुआ करें, कि कभी तो आएगा क़रार...
(1)
मन्नतों की बुनियाद पर खड़ी,
बेपनाह ख्वाहिशों की ये जिंदगी
तुमने दी है...।
तुम, जो बेतरह खूबसूरत हो
और मजबूत भी।
इस दुनिया के जुल्म-ओ-सितम,
बर्दाश्त करने के लिए ही नहीं,
उसे अपने पैरों की ठोकर पर रखने लायक भी...
तुम्हारे ही तो दिए हुए हैं हौसले ये,
फासले ये।
तुम्हारी ही तो दी हुई है जिंदगी ये...
जो भी है,
जैसी है
खूबसूरत है...
(2)
तुमने जो कुछ भी कहा उस दिन...
ज़ख्मों-खराशों की तरह कायम है।
लेकिन दिल को तकलीफ नहीं देता..
क्योंकि
वो हक था तुम्हारा।
हां, अगर कुछ ज़ख्म से नासूर बन गया है,
तो वो है
तुम्हारी आखिरी आवाज...
जो रात भर गूंजती रही कानों में उस रोज
डू यू वांट मी, ऑर नॉट?
ये सवाल था,
आरजू थी,
या धमकीभरे लहजे में मांगा था कुछ तुमने...
ठीक-ठीक याद नहीं।
ये भी नहीं याद कि क्या जवाब दिया था मैंने...
क्योंकि तुम्हारे इस सवाल के बाद ही
खो गया था अपने अंदर छाए अंधेरे में कहीं,
गुमनाम अंधेरा,
जिसमें कुछ साफ नहीं नजर आता...
मैं क्या हूं, क्या करना चाहता हूं, क्या कर पाऊंगा।
शायद...ऐसे ही किसी मोड़ पर उस गुमनाम अंधेरे से
निकलेगी एक शक्ल
मौत की।
लेकिन उससे पहले,
बताना चाहता हूं, कि कोई ठीक-ठीक जवाब क्यों नहीं दे पाया मैं...
दरअसल,
तुम्हारी सवालिया आवाज को सुनते ही,
मेरे अंतर से निकला था जवाब...
जो तुम तक पहुंचने से पहले ही,
खो गया कहीं,
जेहन की पेंचदार नसों में छाए
उसी गुमनाम अंधेरे में...
गोया कि जवाब, सिर्फ जवाब नहीं था,
एक जिम्मेदारी थी...
(3)
तुम्हारी आवाज अब भी गूंज रही है कानों में,
और उसके पीछे भागता हूं मैं
उसे पकड़ कर अपने गले से लगा लेने की
कोशिश में,
लेकिन सिगरेट से उड़े
धुएं के छल्ले की तरह...
वो दूर कहीं गुम हो जाती है...मेरे जवाब की तलाश में।
एक अफसोस सा चटकता है जेहन में
और चुभ जाते हैं टुकड़े उसके
पूरे जिस्म में मेरे,
लेकिन खून नहीं निकलता...
क्योंकि आंसुओं के साथ ही
अब सूख चुका है लहू भी मेरा!
(4)
तुम्हें याद तो होगा,
मेन सड़क के किनारे, चीड़ के पेड़ों की दबंग चॉल से
थोड़ा बाएं होते हुए
करीब पचास फीट नीचे,
बांसों की वो बसाहट...
सुलगते इश्क के हवन की वो भीनी खुशबू ,
जिंदगी उसी बैंबू कॉटेज में कैद होकर रह गयी है
जिसमें तुम्हारे साथ आखिरी रात बितायी थी मैंने,
वो आखिरी रात
जिसमें जिंदा था मैं...
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