पहला हस्ताक्षर...

कुछ-कुछ पहले जैसा...

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

दुख के अंडे



 
इन दिनों,
अपने दुखों को से रहा हूं,
से'ना तो समझते होंगे आप,
वही जो बतख करती है,
अपने अंडों के साथ,
घंटों बैठी रहती है उन पर,
अंडों में जिंदगी की,
आंच पैदा करने के लिए..
सेंकती है अपनी
जीवन-ऊर्जा से उनको...
इस सेने में ही शामिल होता है,
बतख का जीवन,
लगाव,
और करती है अपनी सुखद स्मृतियों का निर्माण वो,


ऐसे ही मैं भी से रहा हूं
सालों के सहेजे,
दुख अपने,
सेंक रहा हूं उनको
अपने ताप से,
देखना है,
जब इन दुखों के अंडे फूटते हैं,
तो,
उनमें से निकले बच्चों की
शक्ल,
किससे मिलती है...


Image courtesy- quail eggs oil painting dot com

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

दुख को पालने से को बढ़ेगा ही, सुखों की तरह दुखों का भी त्याग करना सीखें हम भारतीय

पारुल "पुखराज" ने कहा…

vaah

परछाईयां

...