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गुरुवार, 3 नवंबर 2011

कफ़स



इस कैनवस पर कुछ रंग हैं वादों के, कुछ स्याह बिखरा है उम्मीदों के टूटने का, वक्त की कई कई पुरानी परतें हैं जिनमें से हर एक की दास्तान है अपनी...वादों की, इरादों की, सपनों की, तामीलों की, जुड़ने और बिखरने की, मिल जाने और कभी ना बिछुड़ पाने की।


 ए कुछ साल पहले,
तुमने उम्मीदों का,
जो चराग़ जलाया था.
आने वाले कल के कैनवस पर,
हमारी, अपनी साझा ज़िंदगी का,
जो कोलाज बनाया था,
वो कैनवस,
कफ़स बन गया है अब..

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और झुलस गयी हैं उंगलियां मेरी,
हवाओं से हिफ़ाज़त करते,
तुम्हारी,
उम्मीदों के चराग़ की.

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ऐसा नहीं कि उम्मीदें चटक गयीं मेरी
या पस्त हो गया हो हौसला,
पर तुम ही कहो ना,
आखिर,
हवाओं पर आशियाने बनाने का
तुम्हारा ख़्वाब,
मेरी आंखें कब तक देखें...

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Image courtesy- bigalsartgallery dot com

3 टिप्‍पणियां:

Puja Upadhyay ने कहा…

हवाओं पर आशियाने का ख्वाब...उसका ख्वाब, तुम्हारी आँखें.

सवालों के दायरे कहाँ बाँधोगे? क़ुबूल तो सब ही कर लिया था तुमने, जब पहली बार चिराग की हिफाज़त का वादा किया था.

बेहद खूबसूरत बिम्ब उकेरती कविता.

Unknown ने कहा…

mahadev!!!
Be and you will find the truth!

khoobsurat to bas wo tha, jo dikhta hai mujhmein sundar...wo bas aks hai uska, kahin qaid rah gaya hai jo.

shukriya pooja.
ab to aalsi hone ka 'tag' wapas le lo :)

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बेहतरीन..

परछाईयां

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