पहला हस्ताक्षर...

कुछ-कुछ पहले जैसा...

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

अंधा युग





धृतराष्ट्र तो अंधा था ना, नहीं देख सकता था बाहर का यथार्थ कुछ भी। कुछ ग्राह्य नहीं था उसे, जो उनको था जो देख सकते थे आंखों से अपनी। द्रोण, भीष्म के क्रोध की आंखें भी थीं और वो सक्षम भी था...फिर उन्होंने नहीं रोका क्यों दुर्योधन को...कौरवों को। जिस मर्यादा के चीरहरण ने नाश कर दिया एक वंश का...एक राज्य का...एक कालखंड का। अंधा युग यूं तो आख्यान है मर्यादा के आचरण का ही लेकिन क्या सत्य नहीं कि सबकुछ पहले से तय है...झूठ हो या सच, दोनों दास हैं नियति के...


यदि झूठ बदलता रहता है, चेहरे, वस्त्र और चाल...
तो सच का भी
यथार्थत:
कहां होता है कोई चरित्र?

दरअसल, सच तो बस बैल हो जाने में है
आचरण करने में,
क्योंकि कृष्ण ने आदेश दिया है
आचरण में ही तुम्हारे मनुष्य होने की सार्थकता है
तुम्हारी नियति बनेंगे
आज किए गए
तुम्हारे कर्म...
वही युगों-युगों तक बनेंगे
तुम्हारा भाग्य...
अर्जुन बैल बन गया
और एक युग छला गया कृष्ण के हाथों...

तुम भी,
पक्ष लो सत्य का
या असत्य का...आचरण या निष्क्रियता का...
छले जाओगे...

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

युद्धोपरांत,
यह अंधा युग अवतरित हुआ
जिसमें स्थितियां, मनोवृत्तियां, आत्माएं सब विकृत हैं.
है एक बहुत पतली डोरी मर्यादा की,
पर वह भी दोनों ही पक्षों में उलझी है
सिर्फ कृष्ण में ही है साहस सुलझाने का
वह है भविष्य का रक्षक, वह है अनासक्त
पर शेष अधिकतर हैं अधे,
पथभ्रष्ट, आत्महारा, विगलित
अपने अन्तर की अंधगुफाओं के वासी
यह कथा उन्हीं अंधों की है
या कथा ज्योति की है
अंधों के माध्यम से...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

या तो औरों को या तो अपने मन के बैल बने रहते हैं सब।

परछाईयां

...