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बुधवार, 1 अगस्त 2012

अंत नहीं है...





कहीं गहरे में अंतस के...
उभरता है एक भाव, घृणा का, वितृष्णा, घोर पश्चाताप और पछतावे का...
आखिर क्यूँ इतना विवश हूँ मैं!
गयी कुल चालीस रातें हो चुकी हैं नींद का मुह देखे,
ऊंघ पाया हूँ कभी दिन में..थोड़ी देर के लिए...
अब कहीं कुछ ख़ुशी नहीं दिखती,
कोई गिटार नहीं बजता,

कहीं कुछ रंगीन, चमकीला, सुन्दर नहीं दिखता...
धूम्र वलय का हिस्सा सब लगता, 
इस कुहरे का नहीं होता ओर-छोर...
जैसे अंत नहीं दिखता दुःख का, अशांति का, बेचैनी का...
दिन-दिन गहराते पछतावों का...!
पर ठहरो,
है सहेजता कहीं मुझे, तुम्हारा यह कह जाना धीरे से कानों में,
अंत नहीं है..आसमान का, चटख रंगों का, चमकीली रोशनी और ऊंचाइयों का,
जिन्हें छूने को हर रात,
बिलखती है आत्मा तुम्हारी,
जिस विलाप के शोर में,
नहीं सुन पाते तुम कुछ और...कभी...
अंत नहीं है ऊंचाइयों का...


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Image courtesy- artofday.com

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

आकाश कहाँ टिका है, क्षितिज पर,
क्षितिज मिलता नहीं, बस दिखता है।

Unknown ने कहा…

क्योंकि मर्त्य तो अमर लोक को पूर्ण मान बैठा है,
पर, कहते हैं,स्वर्ग लोक भी सम्यक पूर्ण नही है..
पृथ्वी पर है चाह प्रेम को स्पर्श-मुक्त करने की। प्रवीण जी, आपकी पोस्ट पढ़ी उर्वशी पर। कितने अधिकार से लिखते हैं आप। पात्रों के परिचय से लेकर कथावस्तु और प्रेम की सार्थकता और समग्रता पर मनुष्य होने के नाते अपनी स्वयं की टिप्पणियों तक...आपकी लेखनक्षमता एक ही समय पर बेहद प्रवीण और जादुई है।

परछाईयां

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