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गुरुवार, 30 अगस्त 2012

इतर* की बोतल, अहसासों की खुशबू



कुछ भी अलग नहीं है और नया भी नहीं। कुछ अलग और नया हो सकता है, इसकी उम्मीद सच नहीं। उम्मीद तो बस उम्मीद होती है, एक और शय। जैसे निराश हो जाना। ये याद रहता है कि कहीं कुछ नहीं बदलेगा, लेकिन फिर भी नाउम्मीद होना अच्छा नहीं होता। भरोसा टूटने से भ्रम का बना रहना अच्छा।
बीफोर यू अचीव इट, यू मस्ट बिलीव इट...फिर चाहे वो भ्रम ही क्यों ना हो, है ना? फिर इस भ्रम का इतर*, तुम्हारे होने की खुशबू से कहां कम है...
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काश मैं बांध पाता खुशबुएं भी
तुम्हारी,
जो कैद हैं कहीं आरजुओं की
पुरानी दीवारों में...
फ्रेम कर पाता उनको,
और टांगता कुछ गैरहासिल
तमन्नाओं के ड्राइंग रुम में,
तुम्हारी ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर की तरह।


कभी रास्तों पर चलते हुए
कभी यूं ही अचानक पुरानी डायरी के पन्ने पलटते
कभी आलमारी से उलझते
तुम्हारी दी हुई ब्लू शर्ट की तहों में
उपन्यास के पहले पन्ने पर टटोलते हुए
तुम्हारे लिखे, मेरे नाम के अक्षर...


देर शाम खोलता हूं वो डिओडरंट की गुलाबी शीशी,
और बेसिन पर अबतक वैसी ही रखी
फेसवॉश की सफेद ट्यूब को देर तक सूंघते हुए,
अचानक मुकम्मल हो जाता है इश्क
तुम बाथरूम का दरवाजा पीटती हुई पूछती हो
दफ़्तर नहीं जाना क्या?


वो पूछता है भीड़ भरे चौराहे पर बैठे
पंडित जी के तोते से,
क्यों चली गयी तुम...
और काटता है चक्कर पुरानी मस्जिद वाले वाइज के,
लिखकर मिटा देता है, ख्वाहिशें, आरजुएं, तमन्नाएं.
कि सब अंधे और बहरे हैं।


और अचानक खुशबुओं के जाल में
कैद हो जाते हैं उसके दिन-रात
कई हफ्तों तक नहीं रहता ख्याल
भीड़ के वजूद का, अपने होने का,
सोचता हूं,
तुमसे सुंदर तो सिर्फ मृत्यु होगी...शायद।


हां, ये भी शायद।



*इतर- इत्र
Image courtesy- Lena carpinsky, .artbylena.com

6 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

तू आयी भी, इठलायी भी, पर साथ छोड़ क्यों चली गयी?

दीपिका रानी ने कहा…

मन को छू गई.. बहुत दिनों तक याद रहेगी।

Kartik virmani ने कहा…

Hope floats and hope eventually springs !! Beautifully penned memoirs

Unknown ने कहा…

शुक्रिया दीपिका जी, आपने समय निकालकर पढ़ा, यही क्या कम है

Unknown ने कहा…

Indeed it does bro. Thanks for coming ;)

Unknown ने कहा…

आपसे स्नेह गहरा है, हर टिप्पणी मानो एक कविता है। :)

परछाईयां

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